Monday, 30 September 2019

ऊट बकरी के साथ अरब की परंपरा

  बहीरा साइबा की बच्ची को कहा जाता है और साइबा उस ऊंटनी को कहा जाता है जिससे दस बार लगातार मादा बच्चे पैदा हों बीच में कोई नर न पैदा हो । ऐसी ऊंटनी को आज़ाद छोड़ दिया जाता था उस पर सवारी नहीं की जाती थी उसके बाल नहीं काटे जाते थे और मेहमान के सिवा कोई उसका दूध नहीं पीता था । उसके बाद यह ऊंटनी जो मादा जनती उसका कान चीर दिया जाता और उसे भी उसकी मां के साथ आज़ाद छोड़ दिया जाता उस पर सवारी न की जाती उसका बाल न काटा जाता और मेहमान के सिवा कोई उसका दूध न पीता । यही बहीरा है और इसकी मां साइबा है । वसीला उस बकरी को कहा जाता था जो पांच बार बराबर दो - दो मादा बच्चे जनती । ( अर्थात् पांच बार में दस मादा बच्चे हों ) बीच में कोई नर न पैदा होता । इस बकरी को इसलिए वसीला कहा जाता था कि वह सारे मादा बच्चों को एक दूसरे से जोड़ देती थी । इसके बाद उस बकरी से जो बच्चे पैदा होते उन्हें सिर्फ मर्द खा सकते थे औरतें नहीं खा सकती थी अलबत्ता अगर कोई बच्चा मुर्दा पैदा होता तो उसको मर्द - औरत सभी खा सकते थे । हामी उस नर ऊंट को कहते थे जिसके सहवास से लगातार दस मादा बच्चे पैदा होते बीच में कोई नर न पैदा होता । ऐसे ऊंट की पीठ मज़बूत कर दी जाती थी न उस पर सवारी की जाती थी न उसका बाल काटा जाता था बल्कि उसे ऊंटों के रेवड़ में जोड़ा खाने के लिए आजाद छोड़ दिया जाता था और सिवा उससे कोई दूसरा फायदा न उठाया जाता था । 

Saturday, 28 September 2019

अरब विचार - धाराएं और धर्म

   अरब के सामान्य निवासी हज़रत इस्माईल  के धर्म - प्रचार व प्रसार के नतीजे में दीने इब्राहीमी की पैरवी करने वाले थे इसलिए सिर्फ़ वह अल्लाह की इबादत करते थे और तौहीद ( एकेश्वरवाद ) पर चलते थे लेकिन समय बीतने के साथ - साथ उन्होंने अल्लाह के आदेशों - निर्देशों का एक हिस्सा भुला दिया फिर भी उनके भीतर तौहीद और कुछ दीने इबाहीमी के तौर - तरीके बाक़ी रहे यहां तक कि बन खजाआ का सरदार अम बिन ला सामने आया। उसका लालन - पालन धार्मिक गुणों सदक़ा व खैरात और धार्मिक मामलों से गहरी दिलचस्पी के साथ हुआ था इसलिए लोगों ने उसे मुहब्बत की नज़र से देखा और उसे महान विद्वान और अल्लाह वाला समझकर उसका अनुपालन किया ।      फिर उस व्यक्ति ने शाम देश का सफ़र किया देखा तो वहां मूर्तियों की पूजा की जा रही थी । उसने समझा कि यह भी बेहतर और सही है इसलिए कि शाम देश पैग़म्बरों की धरती और आसमानी किताबों के उतरने की जगह था इस लिए वह अपने साथ हुबल मूर्ति (मक्का में सबसे पहले हुबल मूर्ति की स्थापना हुई थी) भी ले आया और उसे खाना - काबा में गाड़ दिया और मक्का वालों को अल्लाह के साथ शिर्क की दावत दी । मक्का वालों ने मान लिया । इसके बाद बहुत जल्द हिजाज़ के निवासी भी मक्का वालों के पद - चिह्नों पर चल पड़े क्योंकि वे बैतुल्लाह के वाली ( देख - रेख करने वाले ) और हरम के निवासी थे ।    इस तरह अरब में मूर्ति परस्ती ( मूर्ति पूजा ) का रिवाज चल पड़ा । हबल लाल अक़ीक़ ( पत्थर ) से तराशा गया था । मानव - रूप में यह मर्ति थी । दाहिना हाथ टूटा हुआ था । कुरैश को वह इसी हालत में मिला था । उन्होंने उसकी जगह सोने का हाथ लगा दिया । यह मुशरिको का पहला मूर्ति था और इनके नज़दीक सबसे महान और पावन मूर्ति थी ।   हुबल के अलावा अरब के सबसे पुराने मूर्तियों में से मनात है । यह हुज़ैल और ख़ुज़ाआ का मूर्ति था और लाल सागर के तट पर कुदैद के निकट मुसल्लल में गड़ा हुआ था । मुसल्लल एक पहाड़ी घाटी है जिससे कुदीद की तरफ़ उतरते इसके बाद तायफ़ में लात नामक मूर्ति वजूद में आया । यह सकीफ़ का मूर्ति था और वर्तमान मस्जिद ताइफ के बाएं मनारे की जगह पर था । फिर नख्ला की घाटी में जाते इक़ से ऊपर उज्ज़ा गाड़ा गया । यह कुरैश बनू कनाना और दूसरे बहत से क़बीलों का मूर्ति था । और ये तीनों अरब के सबसे बड़े बूत थे । इसके बाद हिजाज़ के हर क्षेत्र में शिर्क ( बहुदेववाद ) की अधिकता और मूर्तियों की भरमार हो गई । कहा जाता है कि एक जिन्न अम्र बिन लुह्य के कब्जे में था ।    उसने बताया कि नूह की क़ौम के मूर्ति — अर्थात वुद्द सुआअ यगूस यऊक और नस्र जद्दा में दबे पड़े हैं । इस सूचना पर अम्र बिन लुह्य जद्दा गया और इन मूर्तियों को खोद निकाला फिर उन्हें तहामा लाया और जब हज का ज़माना आया तो उन्हें विभिन्न क़बीलों के हवाले किया ।   ये क़बीले इन मूर्तियों को अपने - अपने क्षेत्रों में ले गए । इसलिए वुद्द को बनू कल्ब ले गए और उसे इराक के क़रीब शाम की धरती पर दौमतुल जन्दल के इलाके में जर्श नामी जगह पर लगा दिया । सुवा को हजैल बिन मुदरका ले गए और उसे हिजाज़ की धरती पर मक्का के करीब तटवर्ती क्षेत्र में रबात नामी जगह पर गाड़ दिया । यगूस को बनू मुराद का एक क़बीला बनू ग़तीफ़ ले गया और सबा के इलाके में जर्फ़ नामी जगह पर सेट किया । यऊक को बनू हमदान ले गए और यमन की एक बस्ती खैवान में लगाया ।    खैवान मूलत : क़बीला हमदान की एक शाखा है । नस्र को हिमयर कबीले की एक शाखा आले ज़िलकिलाअ ले गए और हिमयर के इलाके में सेट किया । फिर अरब ने इन मूर्तियों के स्थान बनाए जिनका काबे की तरह आदर करते थे । उन्होंने इन स्थानों के लिए पुजारी और सेवक भी नियुक्त कर रखे थे जैसे हिन्दू धर्म में होता हैं और काबे की तरह इन थानों के लिए भी चढ़ावे और भेंट चढ़ाए जाते थे अलबत्ता काबे को इन थानों में श्रेष्ठ मानते थे । अगर सच कहे तो ए लोग हिन्दू धर्म की परम्परा का पालन थे      फिर दूसरे क़बीलों ने भी यही रीति अपनाई और अपने लिए मूर्तियां और स्थान बनाए । इसलिए क़बीला दौस खसअम और बुजैला ने मक्का और यमन के दर्मियान यमन की अपनी धरती में तबाला नामी जगह पर जुलखलसा नाम का मूर्ति और मूर्तिखाना बनाया । बनू तै और उनके अड़ोस - पड़ोस के लोगों ने अजमा और सलमा बनू तै की दो पहाड़ियों के बीच फल्स नाम के दो मूर्ति गाड़ दिए ।    यमन और हिमयर वालों ने सनआ में रियाम नाम की मूर्तियां और स्थान  बनाए । बनू तमीम की शाखा बनू रबीआ बिन काब ने रज़ा नामी मूर्तिखाना बनाया और बक्र व तग़लब और अयाद ने सनदाद में काबात बनाया । क़बीला दौस का एक मूर्ति जुलकफ्फैन कहलाता था बक्र मालिक और मलकान अबनाए कनाना के कबीलों का एक मूर्ति साद कहलाता था ।    बनू अज़रा का एक मूर्ति शम्स कहलाता था और खौलान के एक मूर्ति का नाम अमयानस था । तात्पर्य यह कि इस तरह अरब प्रायद्वीप में हर तरफ़ मूर्ति और मूर्तिखाने फैल गए यहां तक कि हर - हर क़बीले फिर हर - हर घर में एक मूर्ति हो गया । मस्जिदे हराम भी मूर्तियों से भर दी गई । इसलिए जब मोहम्मद  ने मक्का पर विजय प्राप्त की तो बैतुल्लाह के गिर्द ३६० मूर्ति थे । मोहम्मद ने सारी मुर्तिओ को मस्जिदे हराम से बाहर निकाल कर जलवा दिया । इनके अलावा खाना - काबा में भी मूर्ति और तस्वीरें थीं । एक मूर्ति हज़रत इब्राहीम  की शक्ल पर और एक मूर्ति हज़रत इस्माईल  की शक्ल पर बना हुआ था और दोनों के हाथ में फाल निकालने के तीर थे । मक्का - विजय के दिन ये मूर्ति भी तोड़ दिए गए और ये तस्वीरें मिटा दी गईं । लोगों को गुमराही इसी पर बस न थी बल्कि अबू रजा अतारदी रज़ियल्लाहु अन्ह का बयान है कि हम लोग पत्थर पूजते थे ।ये लोग पत्थर पूजते थे जब कोई अच्छा सा नया पत्थर मिल जाता तो पुराने वाले को यह लोग फेक देते थे पत्थर न मिलता तो मिट्टी की एक छोटी सी ढेरी बनाते उस पर बकरी लाकर दूहते फिर उसका पूजा करते । मतलब  यह कि शिर्क और मूर्तिपरस्ती इनलोगो के लिए दीन ( धर्म ) का सबसे बड़ा प्रतीक बन गई थी जिन्हें इस पर गर्व था कि वे हज़रत इब्राहीम के दीन पर हैं । बाक़ी रही यह बात कि उन्हें शिर्क और मूर्तिपरस्ती का विचार कैसे हआ तो इसकी बुनियाद यह थी कि जब उन्होंने देखा कि फ़रिश्तेपैग़म्बर, नबीवलीपरहेज़गार और भले लोग अच्छे काम अंजाम देने वाले अल्लाह के सबसे करीबी बन्दे हैं अल्लाह के नज़दीक उनका बड़ा दर्जा है उनके हाथ पर मोजज़े और करामतें ज़ाहिर होती हैं तो उन्होंने यह समझा कि अल्लाह ने अपने इन नेक बन्दों को कुछ ऐसे कामों में कुदरत और तसर्रुफ़ का अख्तियार दे दिया है जो अल्लाह के साथ खास हैं और ये लोग अपने इस तसर्रुफ़ की वजह से और उनके नजदीक उसका जो मान -सम्मान है . उसकी वजह से इसके अधिकारी हैं कि अल्लाह और उसके आम बन्दों के दर्मियान वसीला और वास्ता हों इसलिए उचित नहीं कि कोई आदमी अपनी ज़रूरत अल्लाह के हुजूर इन लोगों के वसीले के बगैर पेश करे क्योंकि ये लोग अल्लाह के नज़दीक उसकी सिफारिश करेंगे । और अल्लाह जाह व मर्तबे की वजह से उनकी सिफारिश रद्द नहीं करेगा ।     इसी तरह मुनासिब नहीं कि कोई आदमी अल्लाह की इबादत उन लोगों के वसीले के बगैर करे क्योंकि ये लोग अपने मर्तबे की बदौलत उसे अल्लाह के करीब कर देंगे । जब लोगों में इस विचार ने जड़ पकड़ लिया और यह विश्वास मन में बैठ गया तो उन्होंने इन फ़रिश्तों पैग़म्बरों और औलिया वगैरह को अपना वली बना लिया और उन्हें अपने और अल्लाह के दर्मियान वसीला ठहरा लिया और अपने विचार में जिन साधनों से उनका कुर्ब मिल सकता था उन साधनों से कुर्ब हासिल करने की कोशिश की ।   इसलिए अधिकतर की मूर्तियां और स्टेचू गढ़े जो उनकी वास्तविक या काल्पनिक शक्लों के अनुसार थे । इन्हीं स्टेचूज़ को बूत या मूर्ति कहा जाता है ।    बहुत से ऐसे भी थे जिनका कोई मूर्ति नहीं गढ़ा गया बल्कि उनकी कब्रों मज़ारों निवास स्थनों पड़ावों और आराम की जगहों को पवित्र स्थान बना दिया गया । और उन्हीं पर नज नियाज़ और चढ़ावे पेश किए जाने लगे और उनके सामने झुकाव आजिज़ी और इताअत का काम होने लगा ।    इन मज़ारों क़ब्रों आरामगाहों और निवास - स्थानों को अरबी भाषा में औसान कहा जाता है । जिनका अर्थ है मूर्ति और उर्दू जुबान में इसके लिए सबसे क़रीबी लफ़्ज़ है दरगाह व ज़ियारत और दरबार व सरकार है । मुशरिको के नज़दीक इन मूर्तियों और मज़ारों वगैरह की पूजा के लिए कुछ खास तरीके और रस्म व रिवाज भी थे जो अधिकतर अम्र बिन लुत्य की गढ़े हुए थे , एलोग  समझते थे कि अम्र बिन लुह्य की ये नई गढ़ी चीज़े दीने इब्राहीमी में तब्दीली नहीं बल्कि बिदअते हसना ( नई अच्छी बातें ) हैं । नीचे हम लोगो के भीतर चल रही मूर्ति परस्ती की कुछ महत्वपूर्ण परंपराओं का उल्लेख
कर रहे हैं 1 . अज्ञानता - युग के मुश्रिक मूर्तियों के पास मुजाविर ( सेवक - पुजारी ) बनकर बैठते थे उनकी पनाह ढूंढते थे उन्हें ज़ोर - ज़ोर से पुकारते थे और अपनी ज़रूरतों के लिए उन्हें पुकारते और उनसे दुआएं करते थे और समझते थे कि वे अल्लाह से सिफ़ारिश करके हमारी मुराद ( कामना ) पूरी करा देंगे ।2 . मूर्तियों का हज व तवाफ़ करते थे उनके सामने विनम्र भाव से पेश आते थे और उन्हें सज्दा करते थे । 3 . मूर्तियों के लिए नज़राने और कुर्बानियां पेश करते और कुर्बानी के इन जानवरों को कभी मूर्तियों के आस्तानों पर ले जाकर उनका बध करते और कभी किसी भी जगह वध कर लेते थे मगर मूर्तियों के नाम पर बध करते थे । बध के इन दोनों रूपों का उल्लेख अल्लाह ने कुरआन में किया है । कुरान में लिखा गया हैं कि वे जानवर भी हराम हैं जो थानों पर बध करके चढ़ाए गए हों । (सूरा  5 आयत 3) दूसरी जगह कुरान में लिखा गया हैं कि उस जानवर का मांस मत खाओ जिस पर अल्लाह का नाम न लिया गया हो । (सूरा  5 आयत 121 )
4 . मूर्तियों से सान्निध्य प्राप्त करने का एक तरीका यह भी था कि मुशरीक  अपनी सोच के मुताबिक़ अपने खाने - पीने की चीज़ों और अपनी खेती और चौपाए की पैदावार का एक भाग मूर्तियों के लिए खास कर देते थे । इस सिलसिले में उनकी दिलचस्प रीति यह थी कि वे अल्लाह के लिए भी अपनी खेती और जानवरों की पैदावार का एक हिस्सा खास करते थे फिर विभिन्न कारणों से अल्लाह का हिस्सा तो मूर्तियों को दे देते थे लेकिन मूर्तियों का हिस्सा किसी भी हाल में अल्लाह को नहीं देते थे ।     अल्लाह का इर्शाद है अल्लाह ने जो खेती और चौपाए पैदा किए हैं उसका एक भाग अल्लाह के लिए मुक़र्रर किया और कहा यह अल्लाह के लिए है उनके विचार से और यह हमारे शरीकों के लिए है । तो जो उनके शरीकों के लिए होता है वह तो अल्लाह तक नहीं पहुंचता मगर जो अल्लाह के लिए होता है वह उनके शरीकों तक पहुंच जाता है कितना बुरा है वह फैसला जो ये लोग करते हैं । ' ((सूरा आयत 136 ) 
5 . मूर्तियों के सान्निध्य का एक तरीका यह भी था कि वे मुशरीक  खेती और चौपाए के ताल्लुक़ से विभिन्न प्रकार की मन्नतें मानते थे नई - नई बातें और रस्में गढ़ रखी थीं । अल्लाह का इर्शाद है " उन मुश्रिकों ने कहा कि ये चौपाए और खेतियां निषिद्ध हैं जिनकी पीठ पर  न इन पर सवारी की जा सकती है . न सामान लाटा जा
हराम की गई है । न इन पर सवारी की जा सकती है न सामान लादा जा सकता है ) और कुछ चौपाए ऐसे हैं जिन पर ये लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हुए अल्लाह का नाम नहीं लेते । (सूरा  6  आयत 138 ) 6 . इन्हीं जानवरों में बहीरा साइबा वसीला और हामी थे । हज़रत सईद बिन मुसय्यिब का बयान है कि बहीरा वह जानवर है जिसका दूध मूर्तियों के लिए खास कर लिया जाता था और उसे कोई न दूहता था और साइबा वह जानवर है जिसे अपने माबूदों के नाम पर छोड़ते इस पर कोई चीज़ लादी न जाती थी । वसीला उस जवान ऊंटनी को कहा जाता है जो पहली बार की पैदाइश में मादा बच्चा जनती फिर दूसरी बार की पैदाइश में भी मादा बच्चा ही जनती । इसलिए उसे इसलिए मूर्तियों के नाम पर छोड़ दिया जाता कि उसने एक मादा बच्चे को दूसरे मादा बच्चे से जोड़ दिया । दोनों के बीच में कोई नर बच्चा पैदा न हुआ । हामी उस नर ऊंट को कहते जो गिनती की कुछ जुफ्तियां करता ( यानी दस ऊंटनियां ) जब यह अपनी जुफ्तियां पूरी कर लेता और हर एक से मादा बच्चा पैदा हो जाता तो उसे मूर्तियों के लिए छोड़ देते और लादने से माफ़ रखते इसलिए उस पर कोई चीज़ लादी न जाती और उसे हामी कहते ।        अज्ञानता - युग की मूर्ति परस्ती के इन तरीकों का खंडन करते हुए अल्लाह ने फ़रमाया अल्लाह ने न कोई बहीरा न कोई साइबा न कोई वसीला और न कोई हामी बनाया है लेकिन जिन लोगों ने कुफ़ किया वे अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं और उनमें से अक्सर अक्ल नहीं रखते । ' ( सूरा 5 आयत 103  )
    एक दूसरी जगह फ़रमाया इन ( मुश्रिकों ) ने कहा कि इन चौपायों के पेट में जो कुछ है वह ख़ालिस हमारे मर्दो के लिए है और हमारी औरतों पर हराम है । अलबत्ता अगर वह मुर्दा हो तो उसमें मर्द - औरत सब शरीक हैं । ' ( सूरा 6  आयत 139 )
 चौपायों की ऊपर लिखी गई किस्में अर्थात बहीरा साइबा आदि के कुछ दूसरे अर्थ भी बयान किए गए हैं जो इब्ने इसहाक़ की उल्लिखित व्याख्या से कुछ भिन्न हैं । हज़रत सईद बिन मुसय्यिब रह० का बयान गुज़र चुका है कि ये जानवर उनके तागूतों ( खुदा के सरकशों ) के लिए थे।    सहीह बुख़ारी व मुस्लिम में है कि मोहम्मद  ने कहा हैं  कि मैंने अन बिन आमिर लुही खुज़ाई को देखा कि वह जहन्नम में अपनी आंतें घसीट रहा था । क्योंकि यह पहला आदमी था जिसने दीने इब्राहीमी को तब्दील किया मूर्ति गाड़े साइबा छोड़े बहीरा बनाए वसीला ईजाद किया और हामी मुक़र्रर किए।     अरब अपने मूर्तियों के साथ यह सब कुछ इस श्रद्धा के साथ करते थे कि ये मूर्ति उन्हें अल्लाह से करीब कर देंगे और अल्लाह के हुजूर उनकी सिफारिश कर देंगे । इसलिए कुरआन मजीद में बताया गया है कि मुशरीक  कहते थे - " हम उनकी पूजा केवल इसलिए कर रहे हैं कि वे हमें अल्लाह के करीब कर (सूरा 39 आयत  3 )
   ये मुशरीक  अल्लाह के सिवा उनकी पूजा करते हैं जो उन्हें न फायदा पहुंचा सकें न नुक्सान और कहते हैं कि ये अल्लाह के पास हमारे सिफ़ारिशी हैं । ' ( सूरा 10 आयत 18 )
   अरब के मुशरीक  अज़लाम अर्थात फाल ( शकुन ) के तीर भी इस्तेमाल करते थे ।   ( अज़लाम जलम का बहुवचन है और जलम उस तीर को कहते हैं जिसमें पर न लगे हो ) फाल निकालने के लिए इस्तेमाल होने वाले ये तीर तीन प्रकार के होते थे एक वे जिन पर केवल हां या नहीं लिखा होता था ।    इस प्रकार के तीर यात्रा और विवाह आदि जैसे कामों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे । अगर फ़ाल में हां निकलता तो चाहा गया काम कर डाला जाता जाता  अगर नहीं निकलता तो साल भर के लिए स्थगित कर दिया जाता और अगले साल फिर फाल निकाला जाता ।    फ़ाल निकालने वाले तीरों का दूसरा प्रकार वह था जिन पर पानी और दियत आदि अंकित होते थे ।   तीसरा प्रकार वह था जिस पर यह अंकित होता था कि तुम में से है या तुम्हारे अलावा से है या मिला हुआ है । इन तीरों का काम यह था कि जब किसी के नसब ( वंश ) में सन्देह होता तो उसे एक सौ ऊंटों सहित हुबल के पास ले जाते । ऊंटों को तीर वाले महन्त के हवाले करते और वह तमाम तीरों को एक साथ मिलाकर घुमाता झिंझोड़ता फिर एक तीर निकालता । अब अगर यह निकलता कि तुम में से है तो वह उनके क़बीले का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मान लिया जाता और अगर यह निकलता कि तुम्हारे अलावा से है तो हलीफ़ ' ( मित्र ) माना जाता और अगर यह निकलता कि मिला हुआ है तो उनके अन्दर अपनी हैसियत बाक़ी रखता न क़बीले का व्यक्ति माना जाता न हलीफ़ ।    इसी से मिलता - जुलता एक रिवाज मुशरिको में जुआ खेलने और जुए के तीर इस्तेमाल करने का था । इसी तीर की निशानदेही पर वे जुए का ऊंट जिव्ह करके उसका मांस बांटते थे । इसका तरीक़ा यह था कि जआ खेलने वाला एक ऊंट उधार खरीदते और जिब्ह करके उसे दस या अठाईस हिस्सों में बांट देते फिर तीरों से कुरआ निकालते । किसी तीर पर जीत का निशान बना होता और कोई तीर बे-निशान होता । जिसके नाम पर जीत के निशान वाला तीर निकलता वह तो कामियाब माना जाता और अपना हिस्सा लेता और जिसके नाम पर बे - निशान तीर निकलता उसे क़ीमत देनी पड़ती । अरब के मुश्रिक काहिनों अर्राफ़ों और नजमियों ( ज्योतिषियों ) की खबरों में भी आस्था रखते थे । काहिन उसे कहते हैं जो आने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करे और छिपे रहस्यों को जानने का दावा करे । कुछ काहिनों का यह भी दावा था कि एक जिन्न उनके कब्जे में है जो उन्हें खबरें पहंचाता रहता है और कुछ काहिन कहते थे कि उन्हें ऐसा विवेक दिया गया है जिससे वे गैब का पता लगा लेते हैं ।     कुछ इस बात के दावेदार थे कि जो आदमी उनसे कोई बात पूछने आता है उसके कहने - करने से या उसकी हालत से कुछ कारणों के ज़रिए वे घटना स्थल का पता लगा लेते हैं । इस प्रकार के व्यक्ति को अर्राफ़ कहा जाता था जैसे वह व्यक्ति जो चोरी के माल चोरी की जगह और गुमशुदा जानवर आदि का पता - ठिकाना बताता । नजूमी उसे कहते हैं जो तारों पर विचार करके और उनकी चाल और समय का हिसाब लगाकर पता लगाता है कि दुनिया में आगे क्या परिस्थितियां जन्म लेंगी और क्या घटनाएं घटित होंगी । इन नजूमियों की खबरों को मानना वास्तव में तारों पर ईमान लाना है और तारों पर ईमान लाने की एक शक्ल यह भी थी कि अरब के मुरिक नक्षत्रों पर ईमान रखते थे और कहते थे कि हम पर फ्ला और फ़्लां नक्षत्र से वर्षा हुई है ।    मुश्रिकों में अपशकुन का भी रिवाज था । उसे अरबी में तियरा कहते हैं । इसकी शक्ल यह थी कि मुशरीक  किसी चिड़िया या हिरन के पास जाकर उसे भगाते थे । फिर अगर वह दाहिनी ओर भागता तो उसे अच्छाई और सफलता की  निशानी समझ कर अपना काम कर गुज़रते और अगर बाईं ओर भागता तो उसे अपशकुन समझ कर अपने काम से रुक जाते । इसी तरह अगर कोई चिड़िया या जानवर रास्ता काट देता तो उसे भी अपशकुन समझते ।
   इसी से मिलती - जुलती एक हरकत यह भी थी कि मुश्रिक खरगोश के टखने की हड्डी लटकाते थे और कुछ दिनों महीनों जानवरों घरों और औरतों को अपशकुन समझते थे । बीमारियों की छूत के कायल थे और आत्मा के उल्लू बन जाने में विश्वास करते थे अर्थात् उनकी आस्था थी कि जब तक जिसकी हत्या की गई है उसकी हत्या का बदला न लिया जाए उसे शान्ति नहीं मिलती और उसकी आत्मा उल्लू बनकर निर्जन स्थानों पर घूमती रहती है और प्यास - प्यास या मुझे पिलाओ मुझे पिलाओ की आवाज़ लगाती रहती है । जब उसका बदला ले लिया जाता है तो उसे राहत और शान्ति मिल जाती है ।x

अरब का राजनितिक माहौल

    अब मैं आपको  राजनीतिक परिस्थितियों का भी उल्लेख कर हूँ । अरब प्रायद्वीप के वे तीनों सीमावर्ती क्षेत्र जो विदेशी राज्यों के पड़ोस में पड़ते थे , उनकी राजनीतिक स्थिति अशान्ति , बिखराव और पतन और गिरावट का शिकार थी । इंसान स्वामी और दास या शासक और शासित दो वर्गों में बंटा हुआ था । सारे लाभ - प्रमुखों , मुख्य रूप से विदेशी प्रमुखों को प्राप्त थे और सारा बोझ दासों के सर पर था । इसे और अधिक स्पष्ट शब्दों में यो कहा जा सकता है कि प्रजा वास्तव में एक खेती थी जो सरकार के लिए टैक्स और आमदनी जुटाती थी और सरकारें उसे अपने मज़े , भोग - विलास , सुख - वैभव और दमन - चक्र के लिए इस्तेमाल करती थीं ।
   जनता अंधेरों में जीने के लिए हाथ पैर मारती रहती थी और उन पर हर ओर से अन्याय और अत्याचार की वर्षा होती रहती थी , पर वे शिकायत का एक शब्द भी अपने मुख पर नहीं ला सकते थे , बल्कि ज़रूरी था कि भांति - भांति का अपमान , अनादर और अत्याचार सहन करें और जुबान बन्द रखें , क्योंकि सरकार दमनकारी थी और मानव अधिकार नाम की किसी चीज़ का कोई अस्तित्व न था ।
     इन क्षेत्रों के पड़ोस में रहने वाले क़बीले अनिश्चितता के शिकार थे । उन्हें स्वार्थ और इच्छाएं इधर से उधर फेंकती रहती थीं , कभी वे इराकियों के समर्थक बन जाते थे और कभी शामियों के स्वर में स्वर मिलाते थे ।
     जो क़बीले अरब के भीतर आबाद थे , उनके भी जोड़ ढीले और बिखरे हुए थे । हर ओर क़बीलागत झगड़ों , नस्ली बिगाड़ और धार्मिक मतभेदों का बाज़ारग  गर्म था , जिसमें हर क़बीले के लोग हर हाल में अपने - अपने क़बीलों का साथ देते थे , चाहे वह सही हो या ग़लत ।
     एक कवि इसी भावना को इस तरह व्यक्त करता  (मैं भी तो क़बीला गज़ीया ही का एक व्यक्ति हूं । अगर वह ग़लत राह पर चलेगा , तो मैं भी ग़लत राह पर चलूंगा और अगर वह सही राह पर चलेगा , तो मैं भी सही राह पर चलूंगा )अरब के भीतरी भाग में कोई बादशाह न था , जो उनकी आवाज़ को ताक़त पहुंचाता , और न कोई रुजू होने की जगह थी जिसकी ओर परेशानियों में रुजू किया जाता और जिस पर आड़े वक़्तों में भरोसा किया जाता ।
    हां , हिजाज़ की सरकार को मान - सम्मान की दृष्टि से यक़ीनन देखा जाता था और उसे धर्म - केन्द्र का रखवाला भी माना जाता था । यह सरकार वास्तव में एक तरह से सांसारिक नेतृत्व और धार्मिक अगुवाई का योग थी । इसे अरबों पर धार्मिक नेतृत्व के नाम से प्रभुत्व प्राप्त था और हरम और हरम के आस - पास के क्षेत्रों में उसका विधिवत शासन था । वहीं वह बैतुल्लाह के दर्शकों की ज़रूरतों की व्यवस्था और इबाहीमी शरीअत के आदेशों को लागू करती थी और उसके पास संसदीय संस्थाओं जैसी संस्थाएं और समितियां भी थीं , लेकिन यह शासन इतना कमज़ोर था कि अरब के भीतरी भाग की ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने की ताक़त न रखती थी , जैसा कि हशियों के हमले के मौके पर ज़ाहिर हुआ ।









शेष अरब सरदारियां

मैं अदनानी कबीलों के देश - छोड़ने के बारे में बता चूका हूँ  और मैं एभी बता चुका हूँ की अरब देश इन कबीलों में बंट गया था । इसके बाद इनकी सरदारियों और सत्ता का स्वरूप कुछ इस तरह बन गया था कि जो क़बीले हियरा के आस - पास आबाद थे , उन्हें हियरा राज्य के आधीन माना गया और जो क़बीले बादियतुश - शाम में ( शाम के आस - पास ) आबाद हो गए थे , उन्हें ग़स्सानी शासकों के आधीन मान लिया गया , पर पराधीनता नाम मात्र थी , व्यवहार में न थी । इन दो जगहों को छोड़कर अरब के भीतरी भाग में क़बीले हर पहलू से स्वतंत्र थे । _       इन कबीलों में सरदारी व्यवस्था चल रही थी ।ऐ  क़बीले खुद अपना सरदार नियुक्त करते थे और इन सरदारों के लिए उनका क़बीला एक छोटा - सा राज्य हुआ करता था । राजनीतिक अस्तित्व और सुरक्षा का आधार , क़बीलेवार इकाई पर आधारित पक्षपात और अपने भू - भाग की रक्षा - सुरक्षा के संयुक्त हित पर स्थापित था । _      क़बीलेवार सरदारों का स्थान अपनी क़ौम में बादशाहों जैसा था । क़बीला लड़ाई और संधि में बहरहाल अपने सरदार के फैसले के आधीन होता था और किसी हाल में उससे अलग - थलग नहीं रह सकता था ।
     सरदार अपने क़बीले का तानाशाह हआ करता था , यहां तक कि कछ सरदारों का हाल यह था कि अगर वे बिगड़ जाते , तो हज़ारों तलवारें यह पूछे बिना नंगी चमकने लगतीं कि सरदार के गुस्से की वजह क्या है ? फिर भी चूंकि एक ही कुंबे के चचेरे भाइयों में सरदारी के लिए संघर्ष भी हआ करता था , इसलिए उसका तकाज़ा था कि सरदार अपनी क़बीलेवार जनता के प्रति उदारता दिखाए , खूब माल खर्च करे , सत्कार करे , धैर्य व सहनशीलता से काम ले , वीरता का व्यावहारिक रूप प्रदर्शित करे और सम्मान की रक्षा करे , ताकि लोगों की नज़र में आम तौर से और कवियों की नज़र में खास तौर से गुणों और विशेषताओं का योग बन जाए . ( क्योंकि उस युग में कवि क़बीले का मुख हुआ करते थे ) और इस तरह सरदार अपने लोगों में सर्वश्रेष्ठ बन जाए ।
      सरदारों के कुछ विशेष और प्रमुख अधिकार भी हुआ करते थे , जिनका एक कवि ने इस तरह उल्लेख किया है लकल मिरबाशु फ़ीना वस्सफ़ााया व हुक्मु - क वन्नशीततु वल फुजूलू हमारे बीच तुम्हारे लिए ग़नीमत के          ( लड़ाइयों में लूटे गए माल का चौथाई है और चुनींदा माल है और वह माल है जिसका तुम फैसला कर दो और जो राह चलते हाथ आ जाए और जो बंटने से बच रहे । ' मिरबाअ : ग़नीमत के माल का चौथाई हिस्सा , सफ़ाया : वह माल , जिसे बंटने से पहले ही सरदार अपने लिए चुन ले , नशीता : वह माल जो असल क़ौम तक पहुंचने से पहले रास्ते ही में सरदार के हाथ लग जाए , फुजूल : वह माल , जो बंटने के बाद बचा रहे और लड़ने वालों की संख्या में बराबर न बंटे , जैसे बंटने से बचे हुए ऊंट - घोड़े आदि ये तमाम प्रकार के माल क़बीला के सरदार का हक़ हुआ करते थे । 

काबा में कबीलों का अधिकार और उनके काम

   
 मक्का में आबादी की शुरूआत हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम से हुई । उन्होंने  137 साल की उम्र पाई और जब तक जिंदा रहे , मक्का के मुखिया और बैतुल्लाह के मुतवल्ली रहे । उनके  बाद आपके दो सुपुत्र - नाबित , फिर क़दार  फिर नाबित - एक के बाद एक मक्का के मुखिया हुए । इनके बाद इनके नाना मज़ाज़ बिन अम्र जुरहमी ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और इस तरह मक्का की सरदारी बन जरहम के पास चली गई और एक समय तक उन्हीं के पास रही ।
   हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम चूंकि ( अपने पिता के साथ मिलकर ) बैतुल्लाह की बुनियाद रखने वाले और उसे बनाने वाले थे , इसलिए उनकी सन्तान को एक श्रेष्ठ स्थान ज़रूर मिलता रहा , लेकिन सत्ता और अधिकार में उनका कोई हिस्सा न था । फिर दिन पर दिन और साल पर साल बीतते गए , लेकिन हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की सन्तान गुमनाम की गुमनाम ही रही , यहां तक कि बख्त नस्र के प्रकट होने से कुछ पहले बनू जुरहम की ताक़त कमज़ोर पड़ गई और मक्का के क्षितिज पर अदनान का राजनीतिक सितारा जगमगाना शुरू हुआ ।
     इसका प्रमाण यह है कि बख्न नस्र ने ज़ाते इर्क में अरबों से जो लड़ाई लड़ी थी , उसमें अरब फ़ौज का कमांडर जुरहुमी न था , बल्कि खुद अदनान था । फिर बख्त नस्र ने जब सन् 587 ई०पू० में दूसरा हमला किया तो बनू अदनान भागकर यमन चले गए । उस वक़्त बनू इसराईल के नबी हज़रत यरमियाह थे । इनके शिष्य बरखया अदनान के बेटे माद को अपने साथ शाम देश ले गये और जब बख्त नस्र का ज़ोर समाप्त हुआ और माद मक्का आए तो उन्हें क़बीला जुरहुम का केवल एक व्यक्ति जरशम बिन जलहमा मिला । माद ने उसकी लड़की मआना से शादी कर ली और उसी के पेट से नज़ार पैदा हुआ ।
     इसके बाद मक्का में जुरहुम की हालत खराब होती गई । उन्हें तंगदस्ती ने आ घेरा । नतीजा यह हुआ कि उन्होंने बैतुल्लाह की ज़ियारत करने वालों पर ज्यादतियां शुरू कर दी और खाना काबा का माल खाने से भी न झिझके । इधर बन अदनान भीतर ही भीतर उनकी इन हरकतों पर कुढ़ते और भड़कते रहे । इसीलिए जब बनू खुजाआ ने मरीज़्ज़हरान में पड़ाव किया और देखा कि बन् अदनान बनू जुरहुम से नफरत करते हैं , तो इसका फायदा उठाते हुए एक अदनानी कबीले ( बनू बिक्र बिन अब्दे मुनाफ़ बिन किनाना ) को साथ लेकर बनू जुरहुम के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी और उन्हें मक्का से निकाल कर सत्ता पर खुद क़ब्ज़ा कर लिया ।
     यह घटना दूसरी सदी ईसवी के बीच की है । बनू जुरहुम ने मक्का छोड़ते वक़्त ज़मज़म का कुंआ पाट दिया और उसमें कई ऐतिहासिक चीजें गाड़कर उसके चिह्न भी मिटा दिये । मुहम्मद बिन इसहाक़ का बयान है कि अम्र बिन हारिस बिन मुज़ाज जुरहुमी ने खाना काबा के दोनों हिरन और उसके कोने में लगा हुआ पत्थर - हजरे अस्वद – निकालकर ज़मज़म के कुएं में दफ़न कर दिया और अपने क़बीले बनू जुरहुम को साथ लेकर यमन चला गया ।
    बनू जुरहुम को मक्का से देश - निकाला का और वहां के शासन के समाप्त होने का बडा दख था । चनांचे अम्र ने इसी सिलसिले में ये पद कहे ' लगता है जहून से सनआ तक कोई जानने वाला था ही नहीं और न किसी क़िस्सा कहने वाले ने मक्का की रात - रात भर की मज्लिसों में कोई किस्सा सुनाया । क्यों नहीं ? निश्चय ही हम उसके निवासी थे , लेकिन समय की चालों और टूटे हुए भाग्यों ने हमें उजाड़ फेंका ।
      हज़रत इस्माईल का युग लगभग दो हज़ार ईसा पूर्व का है । इस हिसाब से मक्का में क़बीला जुरहुम का अस्तित्व लगभग दो हजार एक सौ वर्ष तक रहा और उनका शासन लगभग दो हज़ार वर्ष चला । बनू खुजाआ ने मक्का पर कब्ज़ा करने के बाद बनू बिक्र को शामिल किए बिना अपना शासन चलाया , अलबत्ता तीन बड़े महत्वपूर्ण पद ऐसे थे जो मुज़री क़बीलों के हिस्से में आए ।

1 . हाजियों को अरफ़ात से मुज़दलफ़ा ले जाना और यौमुन्नज़र - 13 जिलहिज्जा को जोकि हज के सिलसिले का अन्तिम दिन है

मिना से कूच करने का परवाना देना 

    यह पद इलयास बिन मुज़र के परिवार बनू गौस बिन मुर्रा को प्राप्त था , जो सूफा कहलाते थे । इस पद का स्पष्टीकरण इस तरह है कि उज़िलहिज्जा को हाजी कंकड़ी न मार सकते थे , यहां तक कि पहले सफा का एक आदमी कंकड़ी मार लेता , फिर हाजी कंकड़ी मार कर फारिग़ हो जाते और मिना से रवानगी का इरादा करते तो सूफ़ा के लोग मिना के एक मात्र रास्ते अक़बा के दोनों ओर घेरा डाल कर खड़े हो जाते और जब तक खुद न गजर लेते किसी को गुज़रने न देते ।
     उनके गुज़र लेने के बाद बाक़ी लोगों के लिए रास्ता खाली हो जाता । जब सूफा ख़त्म हो गये तो यह पद बनू तमीम के एक परिवार बनू साद बिन जैद मनात को मिल गया ।

2 . 10 ज़िलहिज्जा की सुबह को मुज़दलफ़ा से मिना की ओर रवानगी । यह पद बनू अदवान को प्राप्त था ।

3 . हराम महीनों को आगे - पीछे करना ।

यह पद बनू किनाना की एक शाखा बनू तमीम बिन अदी को प्राप्त था । मक्का पर बनू खुज़ाआ का आधिपत्य कोई तीन सौ वर्ष तक क़ायम रहा । यही समय था जब अदनानी क़बीले मक्का और हिजाज़ से निकल कर नज्द , इराक़ के आस - पास और बहरैन वगैरह में फैले और मक्का के पास - पड़ोस में सिर्फ कुरैश की कुछ शाखाएं बाक़ी रहीं , जो खानाबदोश थीं , उनकी अलग - अलग टोलियां थीं और बनू किनाना में उनके कुछ बिखरे घराने थे , मगर मक्का की हुकूमत और बैतुल्लाह के मुतवल्ली होने में उनका कोई हिस्सा न था , यहां तक कि कुसई बिन किलाब प्रकट हुआ ।
    कुसई के बारे में बताया जाता है कि वह अभी गोद ही में था कि उसके पिता का देहांत हो गया । इसके बाद उसकी मां ने बनू उज़रा के एक व्यक्ति रबीआ बिन हराम से शादी कर ली । यह क़बीला चूंकि शाम देश के पास - पड़ोस में रहता था , इसलिए कुसई की मां वहीं चली गई और वह कुसई को भी अपने साथ लेती गई । जब कुसई जवान हुआ , तो मक्का वापस आया । उस वक़्त मक्का का सरदार हुलैल बिन हब्शीया खुज़ाई था ।
     कुसई ने उसके पास उसकी बेटी हबी से विवाह का संदेशा दिया । हुलैल ने मंजूर कर लिया और शादी कर दी । इसके बाद जब हुलैल का देहान्त हुआ , तो मक्का और बैतुल्लाह के मुतवल्ली बनने के लिए खुज़ाआ और कुरैश के बीच लड़ाई छिड़ गई और उसके  नतीजे में मक्का और बैतुल्लाह पर कुसई का आधिपत्य स्थापित हो गया ।

लड़ाई की वजह क्या थी ? इस बारे में तीन बयान मिलते हैं

     एक यह कि जब कुसई की औलाद खूब फल - फूल गई , उसके पास धन - धान्य का बाहुल्य हो गया और उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ गई और उधर हुलैल का देहान्त हो गया , तो कुसई ने महसूस किया कि अब बनू खुजाआ और बनबिक्र के बजाए मैं काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का पर शासन करने का कहीं ज़्यादा अधिकारी हूं , उसे यह एहसास भी था कि कुरैश खालिस इस्माईली अरब हैं और बाक़ी आले इस्माईल के सरदार भी हैं , ( इसलिए सरदारी के हकदार वही हैं । ) चुनांचे उसने कुरैश और बनू खुजाआ के कुछ लोगों से बातचीत की कि क्यों न बनू खुजाआ और बूनबिक्र को मक्का से निकाल बाहर किया जाए ।   इन लोगों ने उसकी राय से सहमति व्यक्त की ।
    दूसरा बयान यह है कि - खुजाआ के कथनानुसार - खुद हुलेल ने कुसई को वसीयत की थी कि वह काबा की देखभाल करेगा और मक्का की बागडोर संभालेगा ।
   तीसरा बयान यह है कि हुलैल ने अपनी बेटी हुबी को बैतुल्लाह का मुतवल्ली बनाया था और अबू ग़बशान ख़ुज़ाई को उसका वकील बनाया था । चुनांचे हुबी के नायब की हैसियत से वही खाना काबा की कुंजियों का मालिक था । हुलैल का देहान्त हो गया , तो कुसई ने अबू ग़बशान से एक मशक शराब के बदले काबा का मुतवल्ली होना खरीद लिया था , लेकिन खुज़ाआ ने यह खरीदना - बेचना मंजूर न किया और कुसई को बैतुल्लाह से रोकना चाहा । इस पर कुसई ने बनू खुज़ाआ को मक्का से निकालने के लिए कुरैश और बनू किनाना को जमा किया और वे कुसई की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए जमा हो गए । बहरहाल कारण जो भी हो , घटनाओं का क्रम इस तरह है कि जब हुलैल का देहान्त हो गया और सूफा ने वही करना चाहा , जो वे हमेशा करते आए थे , तो कुसई ने कुरैश और किनाना के लोगों को साथ लिया और अक़बा के नज़दीक , जहां वे जमा थे , उनसे आकर कहा कि तुमसे ज़्यादा हम इस पद के हक़दार हैं ।  इस पर सफा ने लड़ाई छेड़ दी , पर कुसई ने उन्हें परास्त करके यह पद छीन लिया । यही मौका था जब खुजाआ और बनू बिक्र ने कुसई से अपना दामन खींचना शुरू कर दिया । इस पर कुसई ने उन्हें भी ललकारा , फिर क्या था । दोनों फरीकों में घमासान की लड़ाई शुरू हो गई और दोनों ओर के बहत - से आदी मारे गए । इसके बाद समझौते की आवाजें उठने लगी और बनूबिक्र के एक व्यक्ति यामर बिन औफ़ को अध्यक्ष बनाया गया । यामर ने फैसला किया कि खुजाआ के बाजए कुसई खाना काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का की सरदारी अपने हाथ में रखने का ज़्यादा हक़दार है , साथ ही कुसई ने जितना खन बहाया है , सब बेकार समझ कर पांव तले रौंद रहा हूं । अलबत्ता खजाआ और बनूबिक्र ने जिन लोगों को क़त्ल किया है , उनकी दियत ( जुर्माना ) अदा करें और खाना काबा को बेरोक - टोक कुसई के हवाले कर दें । इसी फैसले की वजह से यामर की उपाधि शद्दाख पड़ गई । ' शद्दाख का अर्थ है पांव तले रौंदने वाला ।

     इस फैसले के नतीजे में कुसई और कुरैश को मक्का पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो गया और कुसई बैतुल्लाह का धार्मिक नेता बन गया , जिसकी ज़ियारत के लिए अरब के कोने - कोने से आने वालों का तांता बंधा होता था । मक्का पर कुसई के आधिपत्य की यह घटना पांचवीं सदी ईसवी के मध्य अर्थात् 440 ई० की है ।

     कुसई ने मक्का की व्यवस्था इस तरह की कि कुरैश को मक्का के पास - पड़ोस से बुलाकर पूरा शहर उन पर बांट दिया और हर परिवार के रहने - सहने का ठिकाना तै कर दिया , अलबत्ता महीने आगे - पीछे करने वालों को , साथ ही आले सफ़वान बनू अदवान और बनू मुर्रा बिन औफ को उनके पदों पर बाक़ी रखा , क्योंकि कुसई समझता था कि यह भी दीन है , जिसमें रद्दोबदल करना सही नहीं ।

    कुसई का एक कारनामा यह भी है कि उसने काबा के हरम के उत्तर में दारुन्नदव : बनवाया । ( उसका द्वार मस्जिद की ओर था ) दारुन्नदव : असल में कुरैश की पार्लियामेंट थी , जहां तमाम बड़े - बड़े और अहम मामलों के फैसले होते थे । कुरैश पर दारुन्नदवः के बड़े उपकार हैं , क्योंकि यह उनके एक होने की गारंटी देता था और यहीं उनकी उलझी हुई समस्याएं बड़े अच्छे ढंग से तै होती थीं ।

    कुसई की सरदारी सबको मान्य थी । नीचे लिखी जिम्मेदारियां इसी का पता देती है

1 . दारुन्नदव की अध्यक्षता –

जहां बड़े - बड़े मामलों के बारे में मश्विरे होते थे और जहां लोग अपनी लड़कियों की शादियां भी करते थे ।

 2 . लिवा - 

यानी लड़ाई का झंडा कुसई ही के हाथों बांधा जाता था ।

3 . खाना काबा की देखभाल - 

इसका अर्थ यह है कि खाना काबा का द्वार कुसई ही खोलता था और वही खाना काबा की सेवा करता था और उसकी कुंजियां उसी के हाथ में रहती थीं ।

4 . सक़ाया ( पानी पिलाना ) - 

इसकी शक्ल यह थी कि कुछ हौज़ में हाजियों के लिए पानी भर दिया जाता था और उसमें कुछ खजूर और किशमिश डाल कर उसे मीठा बना दिया जाता था । जब हाजी लोग मक्का आते थे , तो उसे पीते थे ।

5 . रिफ़ादा ( हाजियों का आतिथ्य ) - 

इसका अर्थ यह है कि हाजियों के लिए आतिथ्य के रूप में खाना तैयार किया जाता था । इस उद्देश्य के लिए कुसई ने कुरैश पर एक खास रक़म तै कर रखी थी जो हज के मौसम में कुसई के पास जमा की जाती थी । कुसई इस रकम से हाजियों के लिए खाना तैयार कराता था । जो लोग तंगहाल होते या जिनके पास धन - दौलत न होता , वे यहीं खाना खाते थे । ये सारे पद कुसई को प्राप्त थे । कुसई का पहला बेटा अब्दुद्दार था , पर उसके बजाए दूसरा बेटा अब्दे मुनाफ़ कुसई के जीवन ही में नेतृत्व के स्थान पर पहुंच गया था ,
    इसलिए कुसई ने अब्दुद्दार से कहा कि ये लोग यद्यपि नेतृत्व में तुम पर बाज़ी ले  जा चुके हैं , पर मैं तुम्हें इनके बराबर करके रहूंगा ,
     इसलिए  कुसई ने अपने सारे पद और जिम्मेदारियों की वसीयत अब्दुद्दार के लिए कर दी अर्थात् दारुन्नदव : की अध्यक्षता , खाना काबा की निगरानी और देखभाल , झंडा बरदारी , पानी पिलाने का काम और हाजियों का सत्कार सब कुछ अब्दुद्दार को दे दिया ।
   चूंकि किसी काम में कुसई का विरोध नहीं किया जाता था और न उसकी कोई बात रद्द की जाती थी , बल्कि उसका हर कदम , उसके जीवन में भी और उसके मरने के बाद भी , पालन योग्य समझा जाता था , इसलिए उसके मरने के बाद उसके बेटों ने किसी विवाद के बिना उसकी वसीयत बाक़ी रखी ।
    लेकिन जब अब्दे मुनाफ़ का देहान्त हो गया , तो उसके बेटों ने इन पदो के सिलसिले में अपने चचेरे भाइयों अर्थात् अब्दुद्दार की सन्तान से झगड़ना शुरू किया , इसके नतीजे में कुरैश दो गिरोह में बंट गये और करीब था कि दोनों में लड़ाई हो जाती , मगर फिर उन्होंने समझौते की आवाज़ उठाई  और इन पदों को आपस में बांट लिया , चुनांचे हाजियों को पानी पिलाने और उनके आतिथ्य के काम बनू अब्दे मुनाफ़ को दिए गए और दारुन्नदव की अध्यक्षता , झंडा - बरदारी और खाना काबा की निगरानी और देखभाल बनू अब्दुद्दार के हाथ में रही ।
   फिर बनू अब्द मुनाफ़ ने अपने प्राप्त पदों के लिए कुरआ डाला , तो कुरआ हाशिम बिन अब्दे मुनाफ़ के नाम निकला , इसलिए हाशिम ने ही अपनी जिंदगी भर पानी पिलाने और हाजियों के आतिथ्य की व्यवस्था की , अलबत्ता जब हाशिम का देहान्त हो गया तो उनके भाई मुत्तलिब ने गद्दी संभाली , पर मुत्तलिब के बाद उनके भतीजे अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम ने - जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दादा थे.
      यह पद संभाल लिया और उनके बाद उनकी सन्तान उनकी जानशीं हुई , यहां तक कि जब इस्लाम का युग आया तो हज़रत अब्बास बिन मुत्तलिब इस पद पर आसीन थे ।
     इनके अलावा कुछ और पद भी थे , जिन्हें कुरैश ने आपस में बांट रखा था । इन पदों और इन दायित्वों द्वारा कुरैश ने एक छोटा - सा राज्य – बल्कि राज्य प्रशासन — बना रखा था , जिसकी सरकारी संस्थाएं और समितियां कुछ इस ढंग की थीं , जैसे आजकल संसदीय संस्थाएं और समितियां हुआ करती हैं । इन पदों का विवरण नीचे दिया जा रहा है

1 . ईसार , 

     यानी फालगिरी , भाग्य का पता लगाने के लिए बुतों के पास जो तीर रखे रहते थे , उनकी देखभाल और निगरानी । यह पद बनू जम्ह को प्राप्त था ।

2 . अर्थ , 

    यानी बुतों का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए जो चढ़ावे और नज़राने चढ़ाए जाते थे , उनका प्रबन्ध करना , साथ ही झगड़ों और मुक़दमों का फैसला करना । यह काम बनू सहम को सौंपा गया था ।

3 . शूरा , 

    यानी सलाहकार समिति , यह पद बनू असद को प्राप्त था ।

4 . अशनाक 

    यानी दियत और जुर्मानों की व्यवस्था , यह पद बन तैम को मिला हुआ था ।

5 . उनाब 

    यानी क़ौमी झंडाबरदारी , यह बनू उमैया का काम था ।

6 . कुबा

    यानी फ़ौज की व्यवस्था और घुड़सवारों का नेतृत्व । यह बनू मरुजूम के हिस्से में आया था ।

7 . सफ़ारत 

    यानी राजदूतत्व , यह बनू अदी का पद था ।

Friday, 27 September 2019

अरब हुकूमतें और सरदारियां

    इस्लाम से पहले अरब के जो हालात थे , उन पर वार्ता करते हए उचित जान पड़ता है कि वहां की हुकूमतों , सरदारियों और धर्मों का भी एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तत कर दिया जाए ताकि इस्लाम के प्रकट होते समय जो स्थिति थी . वह आसानी से समझ में आ सके ।
       जिस समय अरब प्रायद्वीप पर इस्लाम - सूर्य की चमचमाती किरणें प्रज्वलित हुई , वहां दो प्रकार के शासक थे ।

1- ताजपोश ( गद्दीधारी ) 2-बादशाह , 

    जो वास्तव में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त न थे , दूसरे क़बीलागत सरदार , जिन्हें अधिकारों की दृष्टि से वही प्रमुखता प्राप्त थी जो ताजपोश बादशाहों को प्राप्त थी ,
     लेकिन उनकी बड़ी संख्या को एक और प्रमुखता यह भी मिली हुई थी कि वे पूरे तौर पर स्वायत्तशासी थे । ताजपोश या गद्दीधारी शासक ये थे यमन के बादशाह , आले ग़स्सान ( शाम ) के बादशाह और हियरा ( इराक ) के बादशाह , शेष अरब शासक ताजपोशन थे ।
    यमन की बादशाही अरब आरबा में से जो सबसे पुरानी यमनी जाति मालूम हो सकी , वह सबा जाति है ।
     उर ( इराक़ ) से जो शिलालेख मिले हैं , उनमें ढाई हज़ार साल ईसा पूर्व इस जाति का उल्लेख मिलता है । लेकिन इसकी उन्नति का युग ग्यारह शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होता है । उसके इतिहास के महत्वपूर्ण युग ये हैं

     1 . 1200 ई०पू० से 620 ई०पू० तक का युग – 

       इस युग में सबा के बादशाहों की उपाधि मक्रिबे सबा थी , उनकी राजधानी सरवाह थी , जिसके खंडहर आज भी मआरिब के उत्तर पश्चिम में 50 किलोमीटर की दूरी पर पाए जाते हैं और खरीबा के नाम से मशहूर हैं । इसी युग में मआरिब के प्रसिद्ध बांध की बुनियाद रखी गई जिसे यमन के इतिहास में बड़ा महत्व दिया गया है । कहा जाता है कि इस युग में सबा साम्राज्य को इतनी उन्नति हुई कि उन्होंने अरब के अन्दर और अरब से बाहर जगह - जगह अपने उपनिवेश बना लिए थे । इस युग के बादशाहों की तायदाद का अनुमान 23 से 26 तक किया गया है ।

   2 . 650 ईसा पूर्व से 115 ईसा पूर्व तक का युग

      इस युग में सबा के बादशाहों ने मक्रिब का शब्द छोड़कर मलिक की उपाधि अपना ली थी और उपाय अपना ला था आर सरवाह के बजाए मआरिब को अपनी राजधानी बनाई । इस नगर के खंडहर आज भी सुनआ से 192 किलोमीटर पूरब में पाए जाते हैं ।
3 . 115 ईसा पूर्व से सन् 300 ई० तक का युग
     इस युग में सबा साम्राज्य पर हिमयर क़बीले को ग़लबा हासिल रहा और उसने मआरिब के बजाए रैदान को अपनी राजधानी बनाया, फिर रैदान का नाम ज़िफार पड़ गया , जिसके अवशेष आज भी नगर ' मरयम ' के करीब एक गोल पहाड़ी पर पाए जाते हैं । ' यही युग है जिसमें सबा जाति का पतन शुरू हुआ । पहले नब्तियों ने उत्तरी हिजाज़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके सबा को उनके उपनिवेशों से निकाल बाहर किया , फिर रूमियों ने मिस्र व शाम और उत्तरी हिजाज़ पर क़ब्ज़ा करके उनके व्यापार के समुद्री रास्ते को खतरनाक बना दिया और इस तरह उनका व्यापार धीरे - धीरे नष्ट हो गया ।
     इधर कह्तानी कबीले खुद भी आपस ही में जूझ रहे थे । इन परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि कह्तानी कबीले अपना देश छोड़ - छोड़ कर इधर - उधर बिखर गए ।
4 . सन् 300 ई० के बाद से इस्लाम के शुरू का युग
      इस युग में यमन के भीतर बराबर अशान्ति और बेचैनी फैलती रही । क्रान्तियां आईं , गृह - युद्ध हुए और विदेशियों को हस्तक्षेप करने के मौके मिल गए , यहां तक कि एक वक़्त ऐसा भी आया कि यमन की स्वायत्तता समाप्त हो गई ।
   चनांचे यही यग है जिसमें रूमियो का अदन पर फ़ौजी क़ब्ज़ा हो गया और उनकी मदद से हब्शियों ने हिमयर व हमदान के आपसी संघर्ष का फायदा उठाते हुए 340 ई० में पहली बार यमन पर क़ब्ज़ा कर लिया , जो सन् 378 ई० तक बाकी रहा ।
       इसके बाद यमन की स्वायत्तता तो बहाल हो गई , मगर ' मआरिब ' के प्रसिद्ध बांध में खराबी आनी शुरू हो गई , यहां तक कि 450 या 451 ई० में बांध टूट गया और एक ज़बरदस्त बाढ़ आई जिसका उल्लेख कुरआन मजीद ( सूरः सबा ) में ' सैले अरिम ' के नाम से किया गया है ।
      यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी । इसके नतीजे में आबादी की आबादी उजड़ गई और बहुत से क़बीले इधर - उधर बिखर गए ।
      फिर सन् 523 ई० में एक और भयानक दुर्घटना हुई अर्थात् यमन के यहूदी बादशाह जूनवास ने नजरान के ईसाइयों पर एक ज़बरदस्त हमला करके उन्हें ईसाई धर्म छोड़ने पर बाध्य करना चाहा और जब वे उस पर तैयार न हुए तो जूनवास ने खाइयां खुदवाकर उन्हें भड़कती हुई आग के अलाव में झोंक दिया ।
      कुरआन मजीद ने सूरः बुरूज की आयतों ' कुति - ल अस्हाबुल उखदूद . . . में इस लोमहर्षक घटना की ओर इशारा किया है । इस घटना का नतीजा यह हुआ कि ईसाइयत , जो रूमी बादशाहों के नेतृत्व में अरब क्षेत्रों पर विजय पाने और विस्तारवादी होने में पहले ही  से मुस्तैद और तेज थी , बदला लेने पर तुल गई और हशियों को यमन पर हमले के लिए उकसाते हुए उन्हें समुद्री बेड़ा जुटाया ।
       हशियों ने रूमियों का समर्थन पाकर सन् 525 ई० में अरयात के नेतृत्व में सत्तर हजार फौज से यमन पर दोबारा कब्जा कर लिया । क़ब्जे के बाद शुरू में तो हब्श के गवर्नर की हैसियत से अरयात ने यमन पर शासन किया , लेकिन फिर उसकी सेना के एक आधीन कमांडर - अबरहा – ने 549 ई० में उसकी हत्या करके खुद सत्ता हथिया ली और हब्श के बादशाह को भी अपने इस काम पर राजी कर लिया ।
      सनआ वापस आकर अबरहा इंतिक़ाल कर गया । उसकी जगह उसका बेटा बकसोम , फिर दूसरा बेटा यसरून उत्तराधिकारी हुआ । कहा जाता है कि ये दोनों यमन वालों पर जुल्म ढाने और उन्हें रुसवा व जलील करने में अपने बाप से भी बढ़कर थे । यह वही अबरहा है जिसने जनवरी 571 ई० में खाना कबा को ढाने की कोशिश की और एक भारी फौज के अलावा कुछ हाथियों को भी हमले के लिए साथ लाया , जिसकी वजह से यह ' फौज ' असहाबे फ्रीले ( हाथियों वाली ) के नाम से मशहूर हुई ।
      इधर हाथियों की इस घटना में हशियों की जो तबाही हुई , उससे फायदा उठाते हुए यमन वालों ने फ़ारस सरकार से मदद मांगी और हशियों के खिलाफ विद्रोह करके सैफ़ जी यज़न हिमयरी के बेटे मादीकर्ब के नेतृत्व में हशियों को देश से निकाल बाहर किया और एक स्वतंत्र जाति की हैसियत से मादीकर्ब को अपना बादशाह चुन लिया ।
      यह सन् 575 ई० की घटना है । आजादी के बाद मादीकर्ब ने कुछ हशियों को अपनी सेवा और शाही दरबार में ज़ीनत के लिए रोक लिया , लेकिन यह शौक़ महंगा पड़ा । इन हशियों ने एक दिन मादीकर्व को धोखे से क़त्ल करके जीयजन के परिवार के शासन का चिराग़ हमेशा के लिए बुझा दिया । इधर किसरा ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए सनआ पर एक फारसी नस्ल का गवर्नर मुकर्रर करके यमन को फ़ारस का एक प्रान्त बना लिया ।
      इसके बाद यमन पर एक के बाद एक फ़ारसी गवर्नरों की नियुक्ति होती रही , यहां तक कि आखिरी गवर्नर बाज़ान ने सन् 628 ई० में इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसके साथ ही यमन फ़ारसी सत्ता से आज़ाद होकर इस्लाम की अमलदारी में आ गया ।