Saturday, 28 September 2019

अरब का राजनितिक माहौल

    अब मैं आपको  राजनीतिक परिस्थितियों का भी उल्लेख कर हूँ । अरब प्रायद्वीप के वे तीनों सीमावर्ती क्षेत्र जो विदेशी राज्यों के पड़ोस में पड़ते थे , उनकी राजनीतिक स्थिति अशान्ति , बिखराव और पतन और गिरावट का शिकार थी । इंसान स्वामी और दास या शासक और शासित दो वर्गों में बंटा हुआ था । सारे लाभ - प्रमुखों , मुख्य रूप से विदेशी प्रमुखों को प्राप्त थे और सारा बोझ दासों के सर पर था । इसे और अधिक स्पष्ट शब्दों में यो कहा जा सकता है कि प्रजा वास्तव में एक खेती थी जो सरकार के लिए टैक्स और आमदनी जुटाती थी और सरकारें उसे अपने मज़े , भोग - विलास , सुख - वैभव और दमन - चक्र के लिए इस्तेमाल करती थीं ।
   जनता अंधेरों में जीने के लिए हाथ पैर मारती रहती थी और उन पर हर ओर से अन्याय और अत्याचार की वर्षा होती रहती थी , पर वे शिकायत का एक शब्द भी अपने मुख पर नहीं ला सकते थे , बल्कि ज़रूरी था कि भांति - भांति का अपमान , अनादर और अत्याचार सहन करें और जुबान बन्द रखें , क्योंकि सरकार दमनकारी थी और मानव अधिकार नाम की किसी चीज़ का कोई अस्तित्व न था ।
     इन क्षेत्रों के पड़ोस में रहने वाले क़बीले अनिश्चितता के शिकार थे । उन्हें स्वार्थ और इच्छाएं इधर से उधर फेंकती रहती थीं , कभी वे इराकियों के समर्थक बन जाते थे और कभी शामियों के स्वर में स्वर मिलाते थे ।
     जो क़बीले अरब के भीतर आबाद थे , उनके भी जोड़ ढीले और बिखरे हुए थे । हर ओर क़बीलागत झगड़ों , नस्ली बिगाड़ और धार्मिक मतभेदों का बाज़ारग  गर्म था , जिसमें हर क़बीले के लोग हर हाल में अपने - अपने क़बीलों का साथ देते थे , चाहे वह सही हो या ग़लत ।
     एक कवि इसी भावना को इस तरह व्यक्त करता  (मैं भी तो क़बीला गज़ीया ही का एक व्यक्ति हूं । अगर वह ग़लत राह पर चलेगा , तो मैं भी ग़लत राह पर चलूंगा और अगर वह सही राह पर चलेगा , तो मैं भी सही राह पर चलूंगा )अरब के भीतरी भाग में कोई बादशाह न था , जो उनकी आवाज़ को ताक़त पहुंचाता , और न कोई रुजू होने की जगह थी जिसकी ओर परेशानियों में रुजू किया जाता और जिस पर आड़े वक़्तों में भरोसा किया जाता ।
    हां , हिजाज़ की सरकार को मान - सम्मान की दृष्टि से यक़ीनन देखा जाता था और उसे धर्म - केन्द्र का रखवाला भी माना जाता था । यह सरकार वास्तव में एक तरह से सांसारिक नेतृत्व और धार्मिक अगुवाई का योग थी । इसे अरबों पर धार्मिक नेतृत्व के नाम से प्रभुत्व प्राप्त था और हरम और हरम के आस - पास के क्षेत्रों में उसका विधिवत शासन था । वहीं वह बैतुल्लाह के दर्शकों की ज़रूरतों की व्यवस्था और इबाहीमी शरीअत के आदेशों को लागू करती थी और उसके पास संसदीय संस्थाओं जैसी संस्थाएं और समितियां भी थीं , लेकिन यह शासन इतना कमज़ोर था कि अरब के भीतरी भाग की ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने की ताक़त न रखती थी , जैसा कि हशियों के हमले के मौके पर ज़ाहिर हुआ ।









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