अरब के सामान्य निवासी हज़रत इस्माईल के धर्म - प्रचार व प्रसार के नतीजे में दीने इब्राहीमी की पैरवी करने वाले थे , इसलिए सिर्फ़ वह अल्लाह की इबादत करते थे और तौहीद ( एकेश्वरवाद ) पर चलते थे , लेकिन समय बीतने के साथ - साथ उन्होंने अल्लाह के आदेशों - निर्देशों का एक हिस्सा भुला दिया , फिर भी उनके भीतर तौहीद और कुछ दीने इबाहीमी के तौर - तरीके बाक़ी रहे , यहां तक कि बन खजाआ का सरदार अम बिन ला सामने आया। उसका लालन - पालन धार्मिक गुणों , सदक़ा व खैरात और धार्मिक मामलों से गहरी दिलचस्पी के साथ हुआ था , इसलिए लोगों ने उसे मुहब्बत की नज़र से देखा और उसे महान विद्वान और अल्लाह वाला समझकर उसका अनुपालन किया । फिर उस व्यक्ति ने शाम देश का सफ़र किया , देखा तो वहां मूर्तियों की पूजा की जा रही थी । उसने समझा कि यह भी बेहतर और सही है , इसलिए कि शाम देश पैग़म्बरों की धरती और आसमानी किताबों के उतरने की जगह था , इस लिए वह अपने साथ हुबल मूर्ति (मक्का में सबसे पहले हुबल मूर्ति की स्थापना हुई थी) भी ले आया और उसे खाना - काबा में गाड़ दिया और मक्का वालों को अल्लाह के साथ शिर्क की दावत दी । मक्का वालों ने मान लिया । इसके बाद बहुत जल्द हिजाज़ के निवासी भी मक्का वालों के पद - चिह्नों पर चल पड़े , क्योंकि वे बैतुल्लाह के वाली ( देख - रेख करने वाले ) और हरम के निवासी थे । इस तरह अरब में मूर्ति परस्ती ( मूर्ति पूजा ) का रिवाज चल पड़ा । हबल लाल अक़ीक़ ( पत्थर ) से तराशा गया था । मानव - रूप में यह मर्ति थी । दाहिना हाथ टूटा हुआ था । कुरैश को वह इसी हालत में मिला था । उन्होंने उसकी जगह सोने का हाथ लगा दिया । यह मुशरिको का पहला मूर्ति था और इनके नज़दीक सबसे महान और पावन मूर्ति थी । हुबल के अलावा अरब के सबसे पुराने मूर्तियों में से मनात है । यह हुज़ैल और ख़ुज़ाआ का मूर्ति था और लाल सागर के तट पर कुदैद के निकट मुसल्लल में गड़ा हुआ था । मुसल्लल एक पहाड़ी घाटी है , जिससे कुदीद की तरफ़ उतरते इसके बाद तायफ़ में लात नामक मूर्ति वजूद में आया । यह सकीफ़ का मूर्ति था और वर्तमान मस्जिद ताइफ के बाएं मनारे की जगह पर था । फिर नख्ला की घाटी में जाते इक़ से ऊपर उज्ज़ा गाड़ा गया । यह कुरैश , बनू कनाना और दूसरे बहत से क़बीलों का मूर्ति था । और ये तीनों अरब के सबसे बड़े बूत थे । इसके बाद हिजाज़ के हर क्षेत्र में शिर्क ( बहुदेववाद ) की अधिकता और मूर्तियों की भरमार हो गई । कहा जाता है कि एक जिन्न अम्र बिन लुह्य के कब्जे में था । उसने बताया कि नूह की क़ौम के मूर्ति — अर्थात वुद्द , सुआअ , यगूस , यऊक और नस्र जद्दा में दबे पड़े हैं । इस सूचना पर अम्र बिन लुह्य जद्दा गया और इन मूर्तियों को खोद निकाला , फिर उन्हें तहामा लाया और जब हज का ज़माना आया , तो उन्हें विभिन्न क़बीलों के हवाले किया । ये क़बीले इन मूर्तियों को अपने - अपने क्षेत्रों में ले गए । इसलिए वुद्द को बनू कल्ब ले गए और उसे इराक के क़रीब शाम की धरती पर दौमतुल जन्दल के इलाके में जर्श नामी जगह पर लगा दिया । सुवा को हजैल बिन मुदरका ले गए और उसे हिजाज़ की धरती पर मक्का के करीब , तटवर्ती क्षेत्र में रबात नामी जगह पर गाड़ दिया । यगूस को बनू मुराद का एक क़बीला बनू ग़तीफ़ ले गया और सबा के इलाके में जर्फ़ नामी जगह पर सेट किया । यऊक को बनू हमदान ले गए और यमन की एक बस्ती खैवान में लगाया । खैवान मूलत : क़बीला हमदान की एक शाखा है । नस्र को हिमयर कबीले की एक शाखा आले ज़िलकिलाअ ले गए और हिमयर के इलाके में सेट किया । फिर अरब ने इन मूर्तियों के स्थान बनाए , जिनका काबे की तरह आदर करते थे । उन्होंने इन स्थानों के लिए पुजारी और सेवक भी नियुक्त कर रखे थे जैसे हिन्दू धर्म में होता हैं और काबे की तरह इन थानों के लिए भी चढ़ावे और भेंट चढ़ाए जाते थे , अलबत्ता काबे को इन थानों में श्रेष्ठ मानते थे । अगर सच कहे तो ए लोग हिन्दू धर्म की परम्परा का पालन थे फिर दूसरे क़बीलों ने भी यही रीति अपनाई और अपने लिए मूर्तियां और स्थान बनाए । इसलिए क़बीला दौस , खसअम और बुजैला ने मक्का और यमन के दर्मियान यमन की अपनी धरती में तबाला नामी जगह पर जुलखलसा नाम का मूर्ति और मूर्तिखाना बनाया । बनू तै और उनके अड़ोस - पड़ोस के लोगों ने अजमा और सलमा बनू तै की दो पहाड़ियों के बीच फल्स नाम के दो मूर्ति गाड़ दिए । यमन और हिमयर वालों ने सनआ में रियाम नाम की मूर्तियां और स्थान बनाए । बनू तमीम की शाखा बनू रबीआ बिन काब ने रज़ा नामी मूर्तिखाना बनाया और बक्र व तग़लब और अयाद ने सनदाद में काबात बनाया । क़बीला दौस का एक मूर्ति जुलकफ्फैन कहलाता था , बक्र , मालिक और मलकान अबनाए कनाना के कबीलों का एक मूर्ति साद कहलाता था । बनू अज़रा का एक मूर्ति शम्स कहलाता था , और खौलान के एक मूर्ति का नाम अमयानस था । _ तात्पर्य यह कि इस तरह अरब प्रायद्वीप में हर तरफ़ मूर्ति और मूर्तिखाने फैल गए , यहां तक कि हर - हर क़बीले , फिर हर - हर घर में एक मूर्ति हो गया । मस्जिदे हराम भी मूर्तियों से भर दी गई । इसलिए जब मोहम्मद ने मक्का पर विजय प्राप्त की तो बैतुल्लाह के गिर्द ३६० मूर्ति थे । मोहम्मद ने सारी मुर्तिओ को मस्जिदे हराम से बाहर निकाल कर जलवा दिया । इनके अलावा खाना - काबा में भी मूर्ति और तस्वीरें थीं । एक मूर्ति हज़रत इब्राहीम की शक्ल पर और एक मूर्ति हज़रत इस्माईल की शक्ल पर बना हुआ था और दोनों के हाथ में फाल निकालने के तीर थे । मक्का - विजय के दिन ये मूर्ति भी तोड़ दिए गए और ये तस्वीरें मिटा दी गईं । लोगों को गुमराही इसी पर बस न थी , बल्कि अबू रजा अतारदी रज़ियल्लाहु अन्ह का बयान है कि हम लोग पत्थर पूजते थे ।ये लोग पत्थर पूजते थे जब कोई अच्छा सा नया पत्थर मिल जाता तो पुराने वाले को यह लोग फेक देते थे पत्थर न मिलता तो मिट्टी की एक छोटी सी ढेरी बनाते , उस पर बकरी लाकर दूहते , फिर उसका पूजा करते । मतलब यह कि शिर्क और मूर्तिपरस्ती इनलोगो के लिए दीन ( धर्म ) का सबसे बड़ा प्रतीक बन गई थी जिन्हें इस पर गर्व था कि वे हज़रत इब्राहीम के दीन पर हैं । बाक़ी रही यह बात कि उन्हें शिर्क और मूर्तिपरस्ती का विचार कैसे हआ तो इसकी बुनियाद यह थी कि जब उन्होंने देखा कि फ़रिश्ते, पैग़म्बर, नबी, वली, परहेज़गार और भले लोग अच्छे काम अंजाम देने वाले अल्लाह के सबसे करीबी बन्दे हैं , अल्लाह के नज़दीक उनका बड़ा दर्जा है , उनके हाथ पर मोजज़े और करामतें ज़ाहिर होती हैं , तो उन्होंने यह समझा कि अल्लाह ने अपने इन नेक बन्दों को कुछ ऐसे कामों में कुदरत और तसर्रुफ़ का अख्तियार दे दिया है जो अल्लाह के साथ खास हैं और ये लोग अपने इस तसर्रुफ़ की वजह से और उनके नजदीक उसका जो मान -सम्मान है . उसकी वजह से इसके अधिकारी हैं कि अल्लाह और उसके आम बन्दों के दर्मियान वसीला और वास्ता हों , इसलिए उचित नहीं कि कोई आदमी अपनी ज़रूरत अल्लाह के हुजूर इन लोगों के वसीले के बगैर पेश करे , क्योंकि ये लोग अल्लाह के नज़दीक उसकी सिफारिश करेंगे । और अल्लाह जाह व मर्तबे की वजह से उनकी सिफारिश रद्द नहीं करेगा । इसी तरह मुनासिब नहीं कि कोई आदमी अल्लाह की इबादत उन लोगों के वसीले के बगैर करे , क्योंकि ये लोग अपने मर्तबे की बदौलत उसे अल्लाह के करीब कर देंगे । जब लोगों में इस विचार ने जड़ पकड़ लिया और यह विश्वास मन में बैठ गया तो उन्होंने इन फ़रिश्तों , पैग़म्बरों और औलिया वगैरह को अपना वली बना लिया और उन्हें अपने और अल्लाह के दर्मियान वसीला ठहरा लिया और अपने विचार में जिन साधनों से उनका कुर्ब मिल सकता था , उन साधनों से कुर्ब हासिल करने की कोशिश की । इसलिए अधिकतर की मूर्तियां और स्टेचू गढ़े , जो उनकी वास्तविक या काल्पनिक शक्लों के अनुसार थे । इन्हीं स्टेचूज़ को बूत या मूर्ति कहा जाता है । बहुत से ऐसे भी थे जिनका कोई मूर्ति नहीं गढ़ा गया , बल्कि उनकी कब्रों , मज़ारों , निवास स्थनों , पड़ावों और आराम की जगहों को पवित्र स्थान बना दिया गया । और उन्हीं पर नज , नियाज़ और चढ़ावे पेश किए जाने लगे और उनके सामने झुकाव , आजिज़ी और इताअत का काम होने लगा । इन मज़ारों , क़ब्रों , आरामगाहों और निवास - स्थानों को अरबी भाषा में औसान कहा जाता है । जिनका अर्थ है मूर्ति और उर्दू जुबान में इसके लिए सबसे क़रीबी लफ़्ज़ है दरगाह व ज़ियारत और दरबार व सरकार है । मुशरिको के नज़दीक इन मूर्तियों और मज़ारों वगैरह की पूजा के लिए कुछ खास तरीके और रस्म व रिवाज भी थे जो अधिकतर अम्र बिन लुत्य की गढ़े हुए थे , एलोग समझते थे कि अम्र बिन लुह्य की ये नई गढ़ी चीज़े दीने इब्राहीमी में तब्दीली नहीं , बल्कि बिदअते हसना ( नई अच्छी बातें ) हैं । नीचे हम लोगो के भीतर चल रही मूर्ति परस्ती की कुछ महत्वपूर्ण परंपराओं का उल्लेख
कर रहे हैं 1 . अज्ञानता - युग के मुश्रिक मूर्तियों के पास मुजाविर ( सेवक - पुजारी ) बनकर बैठते थे , उनकी पनाह ढूंढते थे , उन्हें ज़ोर - ज़ोर से पुकारते थे और अपनी ज़रूरतों के लिए उन्हें पुकारते और उनसे दुआएं करते थे और समझते थे कि वे अल्लाह से सिफ़ारिश करके हमारी मुराद ( कामना ) पूरी करा देंगे ।2 . मूर्तियों का हज व तवाफ़ करते थे , उनके सामने विनम्र भाव से पेश आते थे और उन्हें सज्दा करते थे । 3 . मूर्तियों के लिए नज़राने और कुर्बानियां पेश करते और कुर्बानी के इन जानवरों को कभी मूर्तियों के आस्तानों पर ले जाकर उनका बध करते और कभी किसी भी जगह वध कर लेते थे , मगर मूर्तियों के नाम पर बध करते थे । बध के इन दोनों रूपों का उल्लेख अल्लाह ने कुरआन में किया है । कुरान में लिखा गया हैं कि ' वे जानवर भी हराम हैं , जो थानों पर बध करके चढ़ाए गए हों । (सूरा 5 आयत 3) दूसरी जगह कुरान में लिखा गया हैं कि ' उस जानवर का मांस मत खाओ , जिस पर अल्लाह का नाम न लिया गया हो । ' (सूरा 5 आयत 121 )
4 . मूर्तियों से सान्निध्य प्राप्त करने का एक तरीका यह भी था कि मुशरीक अपनी सोच के मुताबिक़ अपने खाने - पीने की चीज़ों और अपनी खेती और चौपाए की पैदावार का एक भाग मूर्तियों के लिए खास कर देते थे । इस सिलसिले में उनकी दिलचस्प रीति यह थी कि वे अल्लाह के लिए भी अपनी खेती और जानवरों की पैदावार का एक हिस्सा खास करते थे , फिर विभिन्न कारणों से अल्लाह का हिस्सा तो मूर्तियों को दे देते थे , लेकिन मूर्तियों का हिस्सा किसी भी हाल में अल्लाह को नहीं देते थे । अल्लाह का इर्शाद है ' अल्लाह ने जो खेती और चौपाए पैदा किए हैं , उसका एक भाग अल्लाह के लिए मुक़र्रर किया और कहा , यह अल्लाह के लिए है उनके विचार से और यह हमारे शरीकों के लिए है । तो जो उनके शरीकों के लिए होता है , वह तो अल्लाह तक नहीं पहुंचता , मगर जो अल्लाह के लिए होता है वह उनके शरीकों तक पहुंच जाता है , कितना बुरा है वह फैसला जो ये लोग करते हैं । ' ((सूरा 6 आयत 136 )
5 . मूर्तियों के सान्निध्य का एक तरीका यह भी था कि वे मुशरीक खेती और चौपाए के ताल्लुक़ से विभिन्न प्रकार की मन्नतें मानते थे , नई - नई बातें और रस्में गढ़ रखी थीं । अल्लाह का इर्शाद है " उन मुश्रिकों ने कहा कि ये चौपाए और खेतियां निषिद्ध हैं , जिनकी पीठ पर न इन पर सवारी की जा सकती है . न सामान लाटा जा
हराम की गई है । न इन पर सवारी की जा सकती है , न सामान लादा जा सकता है ) और कुछ चौपाए ऐसे हैं , जिन पर ये लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हुए अल्लाह का नाम नहीं लेते । ' (सूरा 6 आयत 138 ) 6 . इन्हीं जानवरों में बहीरा , साइबा , वसीला और हामी थे । हज़रत सईद बिन मुसय्यिब का बयान है कि बहीरा वह जानवर है , जिसका दूध मूर्तियों के लिए खास कर लिया जाता था और उसे कोई न दूहता था और साइबा वह जानवर है जिसे अपने माबूदों के नाम पर छोड़ते , इस पर कोई चीज़ लादी न जाती थी । वसीला उस जवान ऊंटनी को कहा जाता है जो पहली बार की पैदाइश में मादा बच्चा जनती , फिर दूसरी बार की पैदाइश में भी मादा बच्चा ही जनती । इसलिए उसे इसलिए मूर्तियों के नाम पर छोड़ दिया जाता कि उसने एक मादा बच्चे को दूसरे मादा बच्चे से जोड़ दिया । दोनों के बीच में कोई नर बच्चा पैदा न हुआ । हामी उस नर ऊंट को कहते जो गिनती की कुछ जुफ्तियां करता ( यानी दस ऊंटनियां ) जब यह अपनी जुफ्तियां पूरी कर लेता और हर एक से मादा बच्चा पैदा हो जाता , तो उसे मूर्तियों के लिए छोड़ देते और लादने से माफ़ रखते , इसलिए उस पर कोई चीज़ लादी न जाती और उसे हामी कहते । अज्ञानता - युग की मूर्ति परस्ती के इन तरीकों का खंडन करते हुए अल्लाह ने फ़रमाया ' अल्लाह ने न कोई बहीरा , न कोई साइबा , न कोई वसीला और न कोई हामी बनाया है , लेकिन जिन लोगों ने कुफ़ किया , वे अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं और उनमें से अक्सर अक्ल नहीं रखते । ' ( सूरा 5 आयत 103 )
एक दूसरी जगह फ़रमाया ' इन ( मुश्रिकों ) ने कहा कि इन चौपायों के पेट में जो कुछ है , वह ख़ालिस हमारे मर्दो के लिए है और हमारी औरतों पर हराम है । अलबत्ता अगर वह मुर्दा हो , तो उसमें मर्द - औरत सब शरीक हैं । ' ( सूरा 6 आयत 139 )
चौपायों की ऊपर लिखी गई किस्में अर्थात बहीरा , साइबा आदि के कुछ दूसरे अर्थ भी बयान किए गए हैं , जो इब्ने इसहाक़ की उल्लिखित व्याख्या से कुछ भिन्न हैं । हज़रत सईद बिन मुसय्यिब रह० का बयान गुज़र चुका है कि ये जानवर उनके तागूतों ( खुदा के सरकशों ) के लिए थे। सहीह बुख़ारी व मुस्लिम में है कि मोहम्मद ने कहा हैं कि मैंने अन बिन आमिर लुही खुज़ाई को देखा कि वह जहन्नम में अपनी आंतें घसीट रहा था । क्योंकि यह पहला आदमी था जिसने दीने इब्राहीमी को तब्दील किया , मूर्ति गाड़े , साइबा छोड़े , बहीरा बनाए , वसीला ईजाद किया और हामी मुक़र्रर किए। अरब अपने मूर्तियों के साथ यह सब कुछ इस श्रद्धा के साथ करते थे कि ये मूर्ति उन्हें अल्लाह से करीब कर देंगे और अल्लाह के हुजूर उनकी सिफारिश कर देंगे । इसलिए कुरआन मजीद में बताया गया है कि मुशरीक कहते थे - " हम उनकी पूजा केवल इसलिए कर रहे हैं कि वे हमें अल्लाह के करीब कर (सूरा 39 आयत 3 )
ये मुशरीक अल्लाह के सिवा उनकी पूजा करते हैं जो उन्हें न फायदा पहुंचा सकें , न नुक्सान और कहते हैं कि ये अल्लाह के पास हमारे सिफ़ारिशी हैं । ' ( सूरा 10 आयत 18 )
अरब के मुशरीक ' अज़लाम ' अर्थात फाल ( शकुन ) के तीर भी इस्तेमाल करते थे । ( अज़लाम , जलम का बहुवचन है और जलम उस तीर को कहते हैं , जिसमें पर न लगे हो ) फाल निकालने के लिए इस्तेमाल होने वाले ये तीर तीन प्रकार के होते थे एक वे जिन पर केवल ' हां ' या ' नहीं ' लिखा होता था । इस प्रकार के तीर यात्रा और विवाह आदि जैसे कामों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे । अगर फ़ाल में ' हां ' निकलता तो चाहा गया काम कर डाला जाता जाता , अगर ' नहीं ' निकलता तो साल भर के लिए स्थगित कर दिया जाता और अगले साल फिर फाल निकाला जाता । फ़ाल निकालने वाले तीरों का दूसरा प्रकार वह था जिन पर पानी और दियत आदि अंकित होते थे । तीसरा प्रकार वह था , जिस पर यह अंकित होता था कि ' तुम में से है ' या ' तुम्हारे अलावा से है ' या ' मिला हुआ है ' । इन तीरों का काम यह था कि जब किसी के नसब ( वंश ) में सन्देह होता तो उसे एक सौ ऊंटों सहित हुबल के पास ले जाते । ऊंटों को तीर वाले महन्त के हवाले करते और वह तमाम तीरों को एक साथ मिलाकर घुमाता , झिंझोड़ता , फिर एक तीर निकालता । अब अगर यह निकलता कि ' तुम में से है , तो वह उनके क़बीले का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मान लिया जाता और अगर यह निकलता कि ' तुम्हारे अलावा से है तो ' हलीफ़ ' ( मित्र ) माना जाता और अगर यह निकलता कि ' मिला हुआ है ' तो उनके अन्दर अपनी हैसियत बाक़ी रखता , न क़बीले का व्यक्ति माना जाता , न हलीफ़ । इसी से मिलता - जुलता एक रिवाज मुशरिको में जुआ खेलने और जुए के तीर इस्तेमाल करने का था । इसी तीर की निशानदेही पर वे जुए का ऊंट जिव्ह करके उसका मांस बांटते थे । इसका तरीक़ा यह था कि जआ खेलने वाला एक ऊंट उधार खरीदते और जिब्ह करके उसे दस या अठाईस हिस्सों में बांट देते , फिर तीरों से कुरआ निकालते । किसी तीर पर जीत का निशान बना होता और कोई तीर बे-निशान होता । जिसके नाम पर जीत के निशान वाला तीर निकलता , वह तो कामियाब माना जाता और अपना हिस्सा लेता और जिसके नाम पर बे - निशान तीर निकलता , उसे क़ीमत देनी पड़ती । अरब के मुश्रिक काहिनों , अर्राफ़ों और नजमियों ( ज्योतिषियों ) की खबरों में भी आस्था रखते थे । काहिन उसे कहते हैं जो आने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करे और छिपे रहस्यों को जानने का दावा करे । कुछ काहिनों का यह भी दावा था कि एक जिन्न उनके कब्जे में है , जो उन्हें खबरें पहंचाता रहता है और कुछ काहिन कहते थे कि उन्हें ऐसा विवेक दिया गया है , जिससे वे गैब का पता लगा लेते हैं । कुछ इस बात के दावेदार थे कि जो आदमी उनसे कोई बात पूछने आता है , उसके कहने - करने से या उसकी हालत से , कुछ कारणों के ज़रिए वे घटना स्थल का पता लगा लेते हैं । इस प्रकार के व्यक्ति को अर्राफ़ कहा जाता था , जैसे वह व्यक्ति जो चोरी के माल , चोरी की जगह और गुमशुदा जानवर आदि का पता - ठिकाना बताता । नजूमी उसे कहते हैं जो तारों पर विचार करके और उनकी चाल और समय का हिसाब लगाकर पता लगाता है कि दुनिया में आगे क्या परिस्थितियां जन्म लेंगी और क्या घटनाएं घटित होंगी । इन नजूमियों की खबरों को मानना वास्तव में तारों पर ईमान लाना है और तारों पर ईमान लाने की एक शक्ल यह भी थी कि अरब के मुरिक नक्षत्रों पर ईमान रखते थे और कहते थे कि हम पर फ्ला और फ़्लां नक्षत्र से वर्षा हुई है । मुश्रिकों में अपशकुन का भी रिवाज था । उसे अरबी में ' तियरा ' कहते हैं । इसकी शक्ल यह थी कि मुशरीक किसी चिड़िया या हिरन के पास जाकर उसे भगाते थे । फिर अगर वह दाहिनी ओर भागता तो उसे अच्छाई और सफलता की निशानी समझ कर अपना काम कर गुज़रते और अगर बाईं ओर भागता तो उसे अपशकुन समझ कर अपने काम से रुक जाते । इसी तरह अगर कोई चिड़िया या जानवर रास्ता काट देता तो उसे भी अपशकुन समझते ।
इसी से मिलती - जुलती एक हरकत यह भी थी कि मुश्रिक खरगोश के टखने की हड्डी लटकाते थे और कुछ दिनों , महीनों , जानवरों , घरों और औरतों को अपशकुन समझते थे । बीमारियों की छूत के कायल थे और आत्मा के उल्लू बन जाने में विश्वास करते थे अर्थात् उनकी आस्था थी कि जब तक जिसकी हत्या की गई है , उसकी हत्या का बदला न लिया जाए , उसे शान्ति नहीं मिलती और उसकी आत्मा उल्लू बनकर निर्जन स्थानों पर घूमती रहती है और ' प्यास - प्यास ' या ' मुझे पिलाओ , मुझे पिलाओ ' की आवाज़ लगाती रहती है । जब उसका बदला ले लिया जाता है , तो उसे राहत और शान्ति मिल जाती है ।x
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