इस्लाम से पहले अरब के जो हालात थे , उन पर वार्ता करते हए उचित जान पड़ता है कि वहां की हुकूमतों , सरदारियों और धर्मों का भी एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तत कर दिया जाए ताकि इस्लाम के प्रकट होते समय जो स्थिति थी . वह आसानी से समझ में आ सके ।
जिस समय अरब प्रायद्वीप पर इस्लाम - सूर्य की चमचमाती किरणें प्रज्वलित हुई , वहां दो प्रकार के शासक थे ।
लेकिन उनकी बड़ी संख्या को एक और प्रमुखता यह भी मिली हुई थी कि वे पूरे तौर पर स्वायत्तशासी थे । ताजपोश या गद्दीधारी शासक ये थे यमन के बादशाह , आले ग़स्सान ( शाम ) के बादशाह और हियरा ( इराक ) के बादशाह , शेष अरब शासक ताजपोशन थे ।
यमन की बादशाही अरब आरबा में से जो सबसे पुरानी यमनी जाति मालूम हो सकी , वह सबा जाति है ।
उर ( इराक़ ) से जो शिलालेख मिले हैं , उनमें ढाई हज़ार साल ईसा पूर्व इस जाति का उल्लेख मिलता है । लेकिन इसकी उन्नति का युग ग्यारह शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होता है । उसके इतिहास के महत्वपूर्ण युग ये हैं
3 . 115 ईसा पूर्व से सन् 300 ई० तक का युग
इस युग में सबा साम्राज्य पर हिमयर क़बीले को ग़लबा हासिल रहा और उसने मआरिब के बजाए रैदान को अपनी राजधानी बनाया, फिर रैदान का नाम ज़िफार पड़ गया , जिसके अवशेष आज भी नगर ' मरयम ' के करीब एक गोल पहाड़ी पर पाए जाते हैं । ' यही युग है जिसमें सबा जाति का पतन शुरू हुआ । पहले नब्तियों ने उत्तरी हिजाज़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके सबा को उनके उपनिवेशों से निकाल बाहर किया , फिर रूमियों ने मिस्र व शाम और उत्तरी हिजाज़ पर क़ब्ज़ा करके उनके व्यापार के समुद्री रास्ते को खतरनाक बना दिया और इस तरह उनका व्यापार धीरे - धीरे नष्ट हो गया ।
इधर कह्तानी कबीले खुद भी आपस ही में जूझ रहे थे । इन परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि कह्तानी कबीले अपना देश छोड़ - छोड़ कर इधर - उधर बिखर गए ।
4 . सन् 300 ई० के बाद से इस्लाम के शुरू का युग
इस युग में यमन के भीतर बराबर अशान्ति और बेचैनी फैलती रही । क्रान्तियां आईं , गृह - युद्ध हुए और विदेशियों को हस्तक्षेप करने के मौके मिल गए , यहां तक कि एक वक़्त ऐसा भी आया कि यमन की स्वायत्तता समाप्त हो गई ।
चनांचे यही यग है जिसमें रूमियो का अदन पर फ़ौजी क़ब्ज़ा हो गया और उनकी मदद से हब्शियों ने हिमयर व हमदान के आपसी संघर्ष का फायदा उठाते हुए 340 ई० में पहली बार यमन पर क़ब्ज़ा कर लिया , जो सन् 378 ई० तक बाकी रहा ।
इसके बाद यमन की स्वायत्तता तो बहाल हो गई , मगर ' मआरिब ' के प्रसिद्ध बांध में खराबी आनी शुरू हो गई , यहां तक कि 450 या 451 ई० में बांध टूट गया और एक ज़बरदस्त बाढ़ आई जिसका उल्लेख कुरआन मजीद ( सूरः सबा ) में ' सैले अरिम ' के नाम से किया गया है ।
यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी । इसके नतीजे में आबादी की आबादी उजड़ गई और बहुत से क़बीले इधर - उधर बिखर गए ।
फिर सन् 523 ई० में एक और भयानक दुर्घटना हुई अर्थात् यमन के यहूदी बादशाह जूनवास ने नजरान के ईसाइयों पर एक ज़बरदस्त हमला करके उन्हें ईसाई धर्म छोड़ने पर बाध्य करना चाहा और जब वे उस पर तैयार न हुए तो जूनवास ने खाइयां खुदवाकर उन्हें भड़कती हुई आग के अलाव में झोंक दिया ।
कुरआन मजीद ने सूरः बुरूज की आयतों ' कुति - ल अस्हाबुल उखदूद . . . में इस लोमहर्षक घटना की ओर इशारा किया है । इस घटना का नतीजा यह हुआ कि ईसाइयत , जो रूमी बादशाहों के नेतृत्व में अरब क्षेत्रों पर विजय पाने और विस्तारवादी होने में पहले ही से मुस्तैद और तेज थी , बदला लेने पर तुल गई और हशियों को यमन पर हमले के लिए उकसाते हुए उन्हें समुद्री बेड़ा जुटाया ।
हशियों ने रूमियों का समर्थन पाकर सन् 525 ई० में अरयात के नेतृत्व में सत्तर हजार फौज से यमन पर दोबारा कब्जा कर लिया । क़ब्जे के बाद शुरू में तो हब्श के गवर्नर की हैसियत से अरयात ने यमन पर शासन किया , लेकिन फिर उसकी सेना के एक आधीन कमांडर - अबरहा – ने 549 ई० में उसकी हत्या करके खुद सत्ता हथिया ली और हब्श के बादशाह को भी अपने इस काम पर राजी कर लिया ।
सनआ वापस आकर अबरहा इंतिक़ाल कर गया । उसकी जगह उसका बेटा बकसोम , फिर दूसरा बेटा यसरून उत्तराधिकारी हुआ । कहा जाता है कि ये दोनों यमन वालों पर जुल्म ढाने और उन्हें रुसवा व जलील करने में अपने बाप से भी बढ़कर थे । यह वही अबरहा है जिसने जनवरी 571 ई० में खाना कबा को ढाने की कोशिश की और एक भारी फौज के अलावा कुछ हाथियों को भी हमले के लिए साथ लाया , जिसकी वजह से यह ' फौज ' असहाबे फ्रीले ( हाथियों वाली ) के नाम से मशहूर हुई ।
इधर हाथियों की इस घटना में हशियों की जो तबाही हुई , उससे फायदा उठाते हुए यमन वालों ने फ़ारस सरकार से मदद मांगी और हशियों के खिलाफ विद्रोह करके सैफ़ जी यज़न हिमयरी के बेटे मादीकर्ब के नेतृत्व में हशियों को देश से निकाल बाहर किया और एक स्वतंत्र जाति की हैसियत से मादीकर्ब को अपना बादशाह चुन लिया ।
यह सन् 575 ई० की घटना है । आजादी के बाद मादीकर्ब ने कुछ हशियों को अपनी सेवा और शाही दरबार में ज़ीनत के लिए रोक लिया , लेकिन यह शौक़ महंगा पड़ा । इन हशियों ने एक दिन मादीकर्व को धोखे से क़त्ल करके जीयजन के परिवार के शासन का चिराग़ हमेशा के लिए बुझा दिया । इधर किसरा ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए सनआ पर एक फारसी नस्ल का गवर्नर मुकर्रर करके यमन को फ़ारस का एक प्रान्त बना लिया ।
इसके बाद यमन पर एक के बाद एक फ़ारसी गवर्नरों की नियुक्ति होती रही , यहां तक कि आखिरी गवर्नर बाज़ान ने सन् 628 ई० में इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसके साथ ही यमन फ़ारसी सत्ता से आज़ाद होकर इस्लाम की अमलदारी में आ गया ।
जिस समय अरब प्रायद्वीप पर इस्लाम - सूर्य की चमचमाती किरणें प्रज्वलित हुई , वहां दो प्रकार के शासक थे ।
1- ताजपोश ( गद्दीधारी ) 2-बादशाह ,
जो वास्तव में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त न थे , दूसरे क़बीलागत सरदार , जिन्हें अधिकारों की दृष्टि से वही प्रमुखता प्राप्त थी जो ताजपोश बादशाहों को प्राप्त थी ,लेकिन उनकी बड़ी संख्या को एक और प्रमुखता यह भी मिली हुई थी कि वे पूरे तौर पर स्वायत्तशासी थे । ताजपोश या गद्दीधारी शासक ये थे यमन के बादशाह , आले ग़स्सान ( शाम ) के बादशाह और हियरा ( इराक ) के बादशाह , शेष अरब शासक ताजपोशन थे ।
यमन की बादशाही अरब आरबा में से जो सबसे पुरानी यमनी जाति मालूम हो सकी , वह सबा जाति है ।
उर ( इराक़ ) से जो शिलालेख मिले हैं , उनमें ढाई हज़ार साल ईसा पूर्व इस जाति का उल्लेख मिलता है । लेकिन इसकी उन्नति का युग ग्यारह शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होता है । उसके इतिहास के महत्वपूर्ण युग ये हैं
1 . 1200 ई०पू० से 620 ई०पू० तक का युग –
इस युग में सबा के बादशाहों की उपाधि मक्रिबे सबा थी , उनकी राजधानी सरवाह थी , जिसके खंडहर आज भी मआरिब के उत्तर पश्चिम में 50 किलोमीटर की दूरी पर पाए जाते हैं और खरीबा के नाम से मशहूर हैं । इसी युग में मआरिब के प्रसिद्ध बांध की बुनियाद रखी गई जिसे यमन के इतिहास में बड़ा महत्व दिया गया है । कहा जाता है कि इस युग में सबा साम्राज्य को इतनी उन्नति हुई कि उन्होंने अरब के अन्दर और अरब से बाहर जगह - जगह अपने उपनिवेश बना लिए थे । इस युग के बादशाहों की तायदाद का अनुमान 23 से 26 तक किया गया है ।2 . 650 ईसा पूर्व से 115 ईसा पूर्व तक का युग
इस युग में सबा के बादशाहों ने मक्रिब का शब्द छोड़कर मलिक की उपाधि अपना ली थी और उपाय अपना ला था आर सरवाह के बजाए मआरिब को अपनी राजधानी बनाई । इस नगर के खंडहर आज भी सुनआ से 192 किलोमीटर पूरब में पाए जाते हैं ।3 . 115 ईसा पूर्व से सन् 300 ई० तक का युग
इस युग में सबा साम्राज्य पर हिमयर क़बीले को ग़लबा हासिल रहा और उसने मआरिब के बजाए रैदान को अपनी राजधानी बनाया, फिर रैदान का नाम ज़िफार पड़ गया , जिसके अवशेष आज भी नगर ' मरयम ' के करीब एक गोल पहाड़ी पर पाए जाते हैं । ' यही युग है जिसमें सबा जाति का पतन शुरू हुआ । पहले नब्तियों ने उत्तरी हिजाज़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके सबा को उनके उपनिवेशों से निकाल बाहर किया , फिर रूमियों ने मिस्र व शाम और उत्तरी हिजाज़ पर क़ब्ज़ा करके उनके व्यापार के समुद्री रास्ते को खतरनाक बना दिया और इस तरह उनका व्यापार धीरे - धीरे नष्ट हो गया ।
इधर कह्तानी कबीले खुद भी आपस ही में जूझ रहे थे । इन परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि कह्तानी कबीले अपना देश छोड़ - छोड़ कर इधर - उधर बिखर गए ।
4 . सन् 300 ई० के बाद से इस्लाम के शुरू का युग
इस युग में यमन के भीतर बराबर अशान्ति और बेचैनी फैलती रही । क्रान्तियां आईं , गृह - युद्ध हुए और विदेशियों को हस्तक्षेप करने के मौके मिल गए , यहां तक कि एक वक़्त ऐसा भी आया कि यमन की स्वायत्तता समाप्त हो गई ।
चनांचे यही यग है जिसमें रूमियो का अदन पर फ़ौजी क़ब्ज़ा हो गया और उनकी मदद से हब्शियों ने हिमयर व हमदान के आपसी संघर्ष का फायदा उठाते हुए 340 ई० में पहली बार यमन पर क़ब्ज़ा कर लिया , जो सन् 378 ई० तक बाकी रहा ।
इसके बाद यमन की स्वायत्तता तो बहाल हो गई , मगर ' मआरिब ' के प्रसिद्ध बांध में खराबी आनी शुरू हो गई , यहां तक कि 450 या 451 ई० में बांध टूट गया और एक ज़बरदस्त बाढ़ आई जिसका उल्लेख कुरआन मजीद ( सूरः सबा ) में ' सैले अरिम ' के नाम से किया गया है ।
यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी । इसके नतीजे में आबादी की आबादी उजड़ गई और बहुत से क़बीले इधर - उधर बिखर गए ।
फिर सन् 523 ई० में एक और भयानक दुर्घटना हुई अर्थात् यमन के यहूदी बादशाह जूनवास ने नजरान के ईसाइयों पर एक ज़बरदस्त हमला करके उन्हें ईसाई धर्म छोड़ने पर बाध्य करना चाहा और जब वे उस पर तैयार न हुए तो जूनवास ने खाइयां खुदवाकर उन्हें भड़कती हुई आग के अलाव में झोंक दिया ।
कुरआन मजीद ने सूरः बुरूज की आयतों ' कुति - ल अस्हाबुल उखदूद . . . में इस लोमहर्षक घटना की ओर इशारा किया है । इस घटना का नतीजा यह हुआ कि ईसाइयत , जो रूमी बादशाहों के नेतृत्व में अरब क्षेत्रों पर विजय पाने और विस्तारवादी होने में पहले ही से मुस्तैद और तेज थी , बदला लेने पर तुल गई और हशियों को यमन पर हमले के लिए उकसाते हुए उन्हें समुद्री बेड़ा जुटाया ।
हशियों ने रूमियों का समर्थन पाकर सन् 525 ई० में अरयात के नेतृत्व में सत्तर हजार फौज से यमन पर दोबारा कब्जा कर लिया । क़ब्जे के बाद शुरू में तो हब्श के गवर्नर की हैसियत से अरयात ने यमन पर शासन किया , लेकिन फिर उसकी सेना के एक आधीन कमांडर - अबरहा – ने 549 ई० में उसकी हत्या करके खुद सत्ता हथिया ली और हब्श के बादशाह को भी अपने इस काम पर राजी कर लिया ।
सनआ वापस आकर अबरहा इंतिक़ाल कर गया । उसकी जगह उसका बेटा बकसोम , फिर दूसरा बेटा यसरून उत्तराधिकारी हुआ । कहा जाता है कि ये दोनों यमन वालों पर जुल्म ढाने और उन्हें रुसवा व जलील करने में अपने बाप से भी बढ़कर थे । यह वही अबरहा है जिसने जनवरी 571 ई० में खाना कबा को ढाने की कोशिश की और एक भारी फौज के अलावा कुछ हाथियों को भी हमले के लिए साथ लाया , जिसकी वजह से यह ' फौज ' असहाबे फ्रीले ( हाथियों वाली ) के नाम से मशहूर हुई ।
इधर हाथियों की इस घटना में हशियों की जो तबाही हुई , उससे फायदा उठाते हुए यमन वालों ने फ़ारस सरकार से मदद मांगी और हशियों के खिलाफ विद्रोह करके सैफ़ जी यज़न हिमयरी के बेटे मादीकर्ब के नेतृत्व में हशियों को देश से निकाल बाहर किया और एक स्वतंत्र जाति की हैसियत से मादीकर्ब को अपना बादशाह चुन लिया ।
यह सन् 575 ई० की घटना है । आजादी के बाद मादीकर्ब ने कुछ हशियों को अपनी सेवा और शाही दरबार में ज़ीनत के लिए रोक लिया , लेकिन यह शौक़ महंगा पड़ा । इन हशियों ने एक दिन मादीकर्व को धोखे से क़त्ल करके जीयजन के परिवार के शासन का चिराग़ हमेशा के लिए बुझा दिया । इधर किसरा ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए सनआ पर एक फारसी नस्ल का गवर्नर मुकर्रर करके यमन को फ़ारस का एक प्रान्त बना लिया ।
इसके बाद यमन पर एक के बाद एक फ़ारसी गवर्नरों की नियुक्ति होती रही , यहां तक कि आखिरी गवर्नर बाज़ान ने सन् 628 ई० में इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसके साथ ही यमन फ़ारसी सत्ता से आज़ाद होकर इस्लाम की अमलदारी में आ गया ।
No comments:
Post a Comment