Wednesday, 9 October 2019

हज़रत हमज़ा और उमर का इस्लाम ले आना


हज़रत हमज़ा रजि० का इस्लाम ले आना

मक्का का वातावरण अत्याचार और दमन के इन काले बादलों से गम्भीर हो गया था कि अचानक एक बिजली चमकी और सताए जा रहे लोगों का रास्ता चमक उठा , यानी हज़रत हमज़ा रजि० मुसलमान हो गए । उनके इस्लाम लाने की घटना सन् 06 नबवी के अन्त की है और सही अनुमान यही है कि वह ज़िलहिज्जा के महीने में मुसलमान हुए थे । उनके इस्लाम लाने की वजह यह है कि एक दिन अब जहल सफा पहाड़ी के नज़दीक अल्लाह के रसूल मोहम्मदके पास से गुज़रा तो आपको पीड़ा पहुंचाई और बुरा - भला कहा । अल्लाह के रसूल मोहम्मदचुप रहे और कुछ भी न कहा , लेकिन इसके बाद उसने आपके मा पर एक पत्थर दे मारा , जिससे ऐसी चोट आई कि खून बह निकला । फिर वह खाना काबा के पास कुरैश की सभा में जा बैठा । अब्दुल्लाह बिन जुदआन की एक लौंडी सफा पहाड़ी पर स्थित अपने मकान से यह पूरा दृश्य देख रही थी । हज़रत हमजा कमान लटकाए शिकार से वापस आए तो उसने उनसे अबू जहल की सारी हरकत कह सुनाई । हज़रत हमज़ा गुस्से से भड़क उठे । यह कुरैश के सबसे ताकतवर और मज़बूत जवान थे । किस्सा सुनकर एक क्षण के लिए भी नहीं रुके । दौड़ते हुए और यह तहैया करते हुए आए कि ज्यों ही अबू जहल का सामना होगा , उसकी मरम्मत कर देंगे , इसलिए मस्जिदे हराम में दाखिल होकर सीधे उसके सर पर जा खड़े हुए और बोले ' ओ अपने चूतड़ से पाद निकालने वाले ! तू मेरे भतीजे को गाली देता है , हालांकि मैं भी उसी के दीन पर हूं । ' इसके बाद कमान से इस ज़ोर की मारी कि उसके सर पर बड़ा घाव हो गया । इस पर अबू जहल के क़बीले बनू मजूम और हज़रत हमज़ा रजि० के कबीले बनू हाशिम के लोग एक दूसरे के खिलाफ भड़क उठे , लेकिन अबू जहल ने यह कहकर उन्हें चुप करा दिया कि अबू अम्मारा को जाने दो । मैने वाक़ई उसके भतीजे को बहुत बुरी गाली दी थी । शुरू में हज़रत हमजा का इस्लाम मात्र इस भावना के साथ था कि उनके रिश्तेदार की तौहीन क्यों की गई , लेकिन फिर अल्लाह ने उनका सीना खोल दिया और उन्होंने इस्लाम का दामन मज़बूती से थाम लिया और मुसलमानों ने उनकी वजह से बड़ी शक्ति महसूस की ।


हज़रत उमर रजि० का इस्लाम लाना 

अत्याचार और दमन के इन काले बादलों में एक और बिजली चमकी , जिसकी चमक पहले से जोरदार थी । यानी हज़रत उमर रजि० मुसलमान हो गए । उनके इस्लाम लाने की घटना सन् 06 नबवी की है । वह हज़रत हमज़ा रजि० के सिर्फ तीन दिन बाद मुसलमान हुए थे और मोहम्मदने उनके ईमान लाने की दुआ की थी । इसलिए इमाम तिर्मिज़ी ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रजि० से रिवायत की है और इसे सहीह भी करार दिया है । इसी तरह तबरानी ने हज़रत इब्ने मसऊद रजि० और हज़रत अनस रजि० से रिवायत की है कि मोहम्मदने फरमाया ' ऐ अल्लाह ! उमर बिन ख़त्ताब और अबू जहल बिन हिशाम में से जो व्यक्त तेरे नज़दीक अधिक प्रिय है , उसके ज़रिए से इस्लाम को ताक़त पहुंचा । ( अल्लाह ने यह दुआ कुबूल फ़रमाई और हज़रत उमर रजि० मुसलमान हो गए ) अल्लाह के नज़दीक इन दोनों में अधिक प्रिय हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने की तमाम रिवायतों पर नज़र डालने से यह बात उभर कर सामने आती है कि उनके दिल में इस्लाम धीरे - धीरे उतरा । उचित मालूम होता है कि इन रिवायतों का सार प्रस्तुत करने से पहले हज़रत उमर रजि० के स्वभाव , विचारों और भावनाओं की ओर भी संक्षेप में संकेत कर दिया जाए । हज़रत उमर रजि० अपनी तेज़ी और सख्ती के लिए मशहूर थे । मुसलमानों ने लंबे समय तक उनके हाथों तरह - तरह की सख्तियां झेली थीं । ऐसा लगता है कि उनके भीतर उनकी अपनी एक दूसरे से टकराने वाली भावनाएं आपस में जूझ रही थीं । इसलिए वह एक ओर तो बाप - दादा की गढ़ी हुई रस्मों का बड़ा आदर करते थे , शराब पीते थे और खेल - तमाशे के शौक़ीन थे , लेकिन दूसरी ओर वह ईमान व अक़ीदे की राह में मुसलमानों की दृढ़ता और विपदाओं को झेलने की उनकी सहन - शक्ति की भी सराहना करते थे । फिर उनके भीतर सोचने - समझने वालों की तरह प्रश्नों का एक तांता था जो रह - रहकर उभरा करता था कि इस्लाम जिस बात की दावत दे रहा है , शायद वही अधिक श्रेष्ठ और पवित्र है । इसीलिए उनकी मनोदशा ( दम में माशा और दम में तोला की - सी ) थी कि अभी भड़के और अभी ढीले पड़ गए । हज़रत उमर रजि० के इस्लाम लाने के बारे में मिलने वाली तमाम रिवायतों का सार यह है कि एक दिन उन्हें घर से बाहर रात बितानी - पड़ी । वह हरम तशरीफ़ लाए और खाना काबा के परदे में घुस गए । उस वक़्त मोहम्मद नमाज़ पढ़ रहे थे और सूरः अल - हाक्का की तिलावत फरमा रहे थे । हज़रत उमर कुरआन सुनने लगे और उसे सुनकर चकित रह गए । उनका बयान है कि मैंने अपने जी में कहा , खुदा की कसम ! यह तो कवि है , जैसा कि कुरैश कहते हैं । लेकिन इतने में आपने यह आयत तिलावत फ़रमाई ' यह एक बुजुर्ग रसूल का कौल है , यह किसी कवि की कविता नहीं है , तुम लोग कम ही ईमान लाते हो । ' हज़रत उमर रजि० कहते हैं , मैंने अपने जी में कहा , ओहो यह तो काहिन है , लेकिन आपने इतने में यह आयत तिलावत फरमाई ' यह किसी काहिन का क़ौल भी नहीं , तुम लोग कम ही नसीहत कुबूल करते हो । यह अल्लाह रब्बुल आलमीन की ओर से उतारा गया है । ' ( आखिर सूरः तक ) हज़रत उमर रजि० का बयान है कि उस वक़्त मेरे दिल में इस्लाम घुस गया । यह पहला मौका था कि हजरत उमर रजि० के दिल में इस्लाम का बीज पड़ा , लेकिन अभी उनके भीतर अज्ञानतापूर्ण विचार , पक्षपात और पुरखों के धर्म की महानता इतरी गहरी बैठी हुई थी कि वह आगे नहीं बढ़ने देती थी और उनका इस्लाम - विरोध चल रहा था । उनके स्वभाव की सख्ती और नबी सल्ल० के प्रति वैर - भाव का यह हाल था कि एक दिन खुद नबी सल्ल० का काम तमाम करने की नीयत से तलवार लेकर निकल पड़े , लेकिन अभी रास्ते ही में थे कि नुऐम बिन अब्दुल्लाह अन - नहाम अदवी से या बनी जोहरा या बनी मजूम ' के किसी आदमी से मुलाकात हो गई । उसने तैवर देखकर पूछा ' उमर ! कहां का इरादा है ? ' उन्होंने कहा , ' मुहम्मद को कत्ल करने जा रहा हूं । ' उसने कहा , ' मुहम्मद को कत्ल करके बनू हाशिम और बनू ज़ोहरा से कैसे बच सकोगे ? ' हज़रत उमर रजि० ने कहा , ' मालूम होता है तुम भी अपना पिछला धर्म छोड़कर विधर्मी हो चुके हो ? ' उसने कहा , उमर ! एक विचित्र बात न बता दूं ? तुम्हारी बहन और बहनोई भी तुम्हारा धर्म छोड़कर विधर्मी हो चुके हैं । यह सुनकर उमर गुस्से से बे - काबू हो गए और सीधे बहन - बहनोई का रुख किया । वहां उन्हें हज़रत खब्बाब बिन अरत्त सर : ताहा पर सम्मिलित एक किताब पढ़ा रहे थे और कुरआन पढ़ाने के लिए वहां आना - जाना हज़रत खब्बाब का रोज़ाना का काम था । जब हज़रत खब्बाब रजि० ने हज़रत उमर रजि० की आहट सुनी , तो घर के अन्दर छिप गए । उधर हज़रत उमर की बहन फ़ातिमा ने किताब छिपा दी , लेकिन हज़रत उमर घर के करीब पहुंच कर हज़रत खब्बाब की किरात सुन चुके थे , इसलिए पूछा कि यह कैसी धीमी - धीमी सी आवाज़ थी , जो तुम लोगों के पास मैंने सुनी थी ? उन्होंने कहा , कुछ भी नहीं , बस हम आपस में बातें कर रहे थे । हज़रत उमर ने कहा , शायद तुम दोनों विधर्मी हो चुके हो ? बहनोई ने कहा , अच्छा उमर ! यह बताओ , अगर हक़ तुम्हारे धर्म के बजाए किसी और धर्म में हो तो ? हज़रत उमर का इतना सुनना था कि अपने बहनोई पर चढ़ दौड़े और उन्हें बुरी तरह कुचल दिया । उनकी बहन ने लपक कर उन्हें अपने शौहर से अलग किया तो बहन को ऐसा चांटा मारा कि चेहरा खून से भर गया । इब्ने इस्हाक़ की रिवायत है कि उनके सर में चोट आई । बहन ने गुस्से में चीख कर कहा , उमर ! अगर तेरे दीन के बजाए दूसरा ही दीन हक़ पर हो तो ? मैं गवाही देती हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं और मैं गवाही देती हूं कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं । यह सुनकर हज़रत उमर के चेहरे पर निराशा छा गई और उन्हें अपनी बहन के चेहरे पर खून देखकर लज्जा भी आने लगी कहने लगे ' अच्छा , यह किताब जो तुम्हारे पास है , तनिक मुझे भी पढ़ने को दो । ' बहन ने कहा , तुम नापाक हो । इस किताब को सिर्फ पाक लोग ही छ सकते हैं । उठो , नहा लो । हज़रत उमर ने उठ कर स्नान किया , फिर किताब ली और बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम० पढ़ी और कहने लगे ' ये तो बड़े पवित्र नाम हैं । ' इसके बाद ताहा से ' इन्ननी अनल्लाह ला इला - ह इल्ला अना फअबुदनी व अकिमिस्सला - त लिज़िक्री० तक पढ़ा । कहने लगे ' यह तो बड़ा अच्छा और बड़ा सम्माननीय कलाम है । मुझे मुहम्मद का पता बताओ । ' हज़रत ख़ब्बाब रजि० ये वाक्य सुनकर बाहर आ गए । कहने लगे ' उमर ! खुश हो जाओ । मुझे उम्मीद है कि अल्लाह के रसूल मोहम्मदने वीरवार को तुम्हारे बारे में जो दुआ की थी ( कि ऐ अल्लाह ! उमर बिन खत्ताब या अबू जहल बिन हिशाम के ज़रिए इस्लाम को शक्ति पहुंचा ) यह वही है और उस वक़्त अल्लाह के रसूल सल्ल० सफा पहाड़ी के पास वाले मकान में तशरीफ़ रखते हैं । ' ' यह सुनकर हज़रत उमर रजि० ने अपनी तलवार खींच ली और उस घर के पास आकर दरवाजे पर दस्तक दी । एक आदमी ने उठकर दरवाजे की दराड़ से झांका तो देखा कि उमर तलवार नंगी किए मौजूद हैं । लपक कर अल्लाह के रसूल मोहम्मद को खबर दी और सारे लोग सिमट कर इकट्ठा हो गए । हज़रत हमज़ा रजि० ने पूछा , क्या बात है ? लोगों ने कहा , उमर हैं । हज़रत हमजा रजि० ने कहा , बस , उमर हैं , दरवाज़ा खोल दो । अगर वह भली नीयत से आया है , तो उसे हम भलाई देंगे और अगर कोई बुरा इरादा लेकर आया है , तो हम उसी की तलवार से उसका काम तमाम कर देंगे । उधर अल्लाह के रसूल मोहम्मदअन्दर तशरीफ़ रखते थे , आप पर वा नाजिल हो रही थी । वा नाज़िल हो चुकी तो हज़रत उमर के पास तशरीफ़ लाए । बैठक में उनसे मुलाक़ात हुई । आपने उनके कपड़े और तलवार का परतला समेट कर पकड़ा और सख्ती से झटकते हुए फरमाया , उमर ! क्या तुम उस वक़्त तक बाज़ नहीं आओगे , जब तक कि अल्लाह तुम पर वैसी ही ज़िल्लत और रुसवाई और शिक्षाप्रद सज़ा न उतार दे , जैसी वलीद बिन मुग़ीरह रजि० पर नाज़िल हो चुकी है । ऐ अल्लाह ! यह उमर बिन खत्ताब है । ऐ अल्लाह ! इस्लाम को उमर बिन खत्तब के ज़रिए ताक़त और इज़्ज़त अता फरमा । आपके इस इर्शाद के बाद हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम स्वीकार करते हुए कहा ' मैं गवाही देता हूं कि यक़ीनन अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक - नहीं और यकीनी तौर पर आप अल्लाह के रसूल हैं । ' यह सुनकर घर के भीतर मौजूद सहाबा रजि० ने इस ज़ोर से तक्बीर कही कि मस्जिदे हराम वालों को सुनाई पड़ी । मालूम है कि हज़रत उमर रजि० की ताक़त और दबदबे का हाल यह था कि कोई उनसे मुकाबले की हिम्मत न करता था , इसलिए उनके मुसलमान हो जाने से मुश्किों में कुहराम मच गया और उन्हें बड़ी ज़िल्लत व रुसवाई महसूस हुई । दूसरी ओर इनके इस्लाम लाने से मुसलमानों को बड़ी इज्जत , ताक़त , पद - प्रतिष्ठा , और हर्ष - प्रसन्नता हुई । इसलिए इने इस्हाक़ ने अपनी सनद से हज़रत ' उमर रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान नक़ल किया है कि जब मैं मुसलमान हुआ तो मैंने सोचा कि मक्के का कौन आदमी अल्लाह के मोहम्मद का सबसे बड़ा और सबसे सख्त दुश्मन है ? फिर मैंने जी ही जी में कहा , यह अबू जहल है । इसके बाद मैंने उसके घर जाकर उसका दरवाजा खटखटाया । वह बाहर आया , देखकर बोला ' स्वागत है , स्वागत है , कैसे आना हुआ ? ' मैंने कहा , ' तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद मोहम्मद पर ईमान ला चुका हूं और जो कुछ वह लाए हैं , उसकी तस्दीक कर चुका हूं । ' हज़रत उमर रजि० का बयान है कि ( यह सुनते ही ) उसने मेरे सामने से रवाज़ा बन्द कर लिया और बोला ' अल्लाह तेरा बुरा करे और जो कुछ तू लेकर आया है , उसका भी बुरा करे । इमाम इने जौजी ने हज़रत उमर रजि० से यह रिवायत नक़ल की है कि जब कोई व्यक्ति मुसलमान हो जाता तो लोग उसके पीछे पड़ जाते , उसे मारते - पीटते और वह भी उन्हें मारता , इसलिए जब मैं मुसलमान हुआ तो अपने मामूं आसी बिन हाशिम के पास गया और उसे खबर दी । वह घर के अन्दर घुस गया , फिर कुरैश के एक बड़े आदमी के पास गया , ( शायद अबू जहल की ओर इशारा है ) और उसे खबर दी , वह भी घर के अन्दर घुस गया । इने हिशाम और इब्ने जौज़ी का बयान है कि जब हज़रत उमर रजि० मुसलमान हुए तो जमील बिन मोमर जमही के पास गए । यह व्यक्ति किसी बात का ढोल पीटने में पूरे कुरैश में सबसे ज़्यादा मशहूर था । हज़रत उमर रजि० ने उसे बताया कि वह मुसलमान हो गए हैं । उसने सुनते ही बड़ी ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर कहा कि खत्ताब का बेटा बेदीन ( विधी ) हो गया है । हज़रत उमर रजि० उसके पीछे ही थे , बोले ' यह झूठ कहता है । मैं मुसलमान हो गया हूं । ' बहरहाल लोग हज़रत उमर रजि० पर टूट पड़े और मार - पीट शुरू हो गई । लोग हज़रत उमर रजि० को मार रहे थे और हज़रत उमर रजि० लोगों को मार रहे थे , यहां तक कि सूरज सर पर आ गया और हज़रत उमर थक कर बैठ गये । लोग सर पर सवार थे । हज़रत उमर रजि० ने कहा ' जो बन पड़े , कर लो । खुदा की क़सम ! अगर हम लोग तीन सौ की तायदाद में होते तो फिर मक्के में या तो तुम ही रहते या हम ही रहते । इसके बाद मुश्किों ने इस इरादे से हज़रत उमर रजि० के घर पर हल्ला बोल दिया कि उन्हें जान से मार डालें । इसलिए सहीह बुखारी में हज़रत इब्ने उमर रजि० से रिवायत है कि हज़रत उमर रजि० खौफ़ की हालत में घर के भीतर थे कि इस बीच अबू अम्र आस बिन वाइल सहमी आ गया । वह धारीदार यमनी चादर का जोड़ा और रेशमी गोटे से सजा हुआ कुरता पहने हुए था । उसका ताल्लुक़ क़बीला सम से था और यह क़बीला अज्ञानता - युग में हमारा मित्र था । उसने पूछा , क्या बात है ? हज़रत उमर रजि० ने कहा , मैं मुसलमान हो गया हूं । इसलिए आपकी कौम मुझे क़त्ल करना चाहती है । आस ने कहा , यह संभव नहीं । आस की बात सुनकर मुझे सन्तोष हो गया । इसके बाद आस वहां से निकला और लोगों से मिला । उस वक़्त स्थिति यह थी कि घाटी में भीड़ की भीड़ जमा हो रही थी । आस ने उनसे पूछा , ' क्या इरादा है ? क्यों जमा हो रहे है ? कहां जाना चाहते हैं ? ' लोगों ने बताया , यही ख़त्ताब के बेटे ( उमर ) की खोज है । वह बे - दीन हो गया है न ! आस ने कहा , वहां जाने की कोई जरूरत नहीं । यह सुनते ही लोग वापस अपने घरों को पलट गये । इब्ने इस्हाक़ की एक रिवायत में है कि अल्लाह की कसम , ऐसा लगता था , मानो वे लोग एक कपड़ा थे , जिसे उसके ऊपर से झटक कर फेंक दिया गया । हज़रत उमर रजि० के इस्लाम लाने पर यह हालत तो मुश्किों की हुई थी , बाकी रहे मुसलमान तो उनके हालात का अन्दाज़ा इससे हो सकता है कि मुजाहिद ने इब्ने अब्बास रजि० से रिवायत किया है कि मैंने हज़रत उमर बिन खत्ताब रजि० से मालूम किया कि किस वजह से आपकी उपाधि ' फारूक़ ' हुई ? तो उन्होंने कहा ' मुझसे तीन दिन पहले हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु मुसलमान हुए । ' फिर हज़रत उमर रजि० ने उनके इस्लाम लाने की घटना बता कर अन्त में कहा कि फिर जब मैं मुसलमान हुआ , तो मैंने कहा , ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० ! क्या हम हक़ ( सत्य ) पर नहीं हैं , भले ही जिंदा रहें या मरें ? आपने फरमाया , क्यों नहीं । उस ज़ात की कसम , जिसके हाथ में मेरी जान है , तुम लोग हक़ पर हो , चाहे जिंदा रहो , चाहे मौत के शिकार हो जाओ । हज़रत उमर रजि० कहते हैं कि तब मैंने कहा कि फिर छिपना कैसा ? उस जात की कसम , जिसने हक़ के साथ आपको भेजा है , हम ज़रूर बाहर निकलेंगे । इसलिए हम दो लाइनों में आपको साथ लेकर बाहर आए । एक लाइन में हमजा थे और एक में मैं था । हमारे चलने से चक्की के आटे की तरह हल्की - हल्की धूल उड़ रही थी , यहां तक कि हम मस्जिदे हराम में दाखिल हो गए । हज़रत उमर रजि० का बयान है कि कुरैश ने मुझे और हमज़ा को देखा तो उनके दिलों पर ऐसी चोट लगी कि अब तक न लगी थी । उसी दिन अल्लाह के रसूल सल्ल० ने मेरी उपाधि ' फ़ारूक़ ' रख दिया । हजरत इब्ने मसऊद रजि० का इर्शाद है कि हम खाना काबा के पास नमाज़ पढ़ने की ताक़त न रखते थे , यहां तक कि हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम अपना लिया । हज़रत सुहैब बिन सिनान रूमी रज़ियल्लाह अन्ह का बयान है कि हजरत उमर रजि० मुसलमान हुए तो इस्लाम परदे से बाहर आया , उसकी खुल्लम खुल्ला दावत दी गई । हम घेरा बना कर बैतुल्लाह के चारों ओर बैठे , बैतुल्लाह का तवाफ़ किया और जिसने हम पर सख्ती की , उससे बदला लिया और उसके कुछ अत्याचारों का जवाब दिया । हज़रत इले मसऊद रज़ियल्लाहु अन्ह का बयान है कि जब से हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम अपनाया , तब से हम बराबर ताकतवर और इज्जतदार रहे । 

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