Saturday, 28 September 2019

काबा में कबीलों का अधिकार और उनके काम

   
 मक्का में आबादी की शुरूआत हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम से हुई । उन्होंने  137 साल की उम्र पाई और जब तक जिंदा रहे , मक्का के मुखिया और बैतुल्लाह के मुतवल्ली रहे । उनके  बाद आपके दो सुपुत्र - नाबित , फिर क़दार  फिर नाबित - एक के बाद एक मक्का के मुखिया हुए । इनके बाद इनके नाना मज़ाज़ बिन अम्र जुरहमी ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और इस तरह मक्का की सरदारी बन जरहम के पास चली गई और एक समय तक उन्हीं के पास रही ।
   हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम चूंकि ( अपने पिता के साथ मिलकर ) बैतुल्लाह की बुनियाद रखने वाले और उसे बनाने वाले थे , इसलिए उनकी सन्तान को एक श्रेष्ठ स्थान ज़रूर मिलता रहा , लेकिन सत्ता और अधिकार में उनका कोई हिस्सा न था । फिर दिन पर दिन और साल पर साल बीतते गए , लेकिन हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की सन्तान गुमनाम की गुमनाम ही रही , यहां तक कि बख्त नस्र के प्रकट होने से कुछ पहले बनू जुरहम की ताक़त कमज़ोर पड़ गई और मक्का के क्षितिज पर अदनान का राजनीतिक सितारा जगमगाना शुरू हुआ ।
     इसका प्रमाण यह है कि बख्न नस्र ने ज़ाते इर्क में अरबों से जो लड़ाई लड़ी थी , उसमें अरब फ़ौज का कमांडर जुरहुमी न था , बल्कि खुद अदनान था । फिर बख्त नस्र ने जब सन् 587 ई०पू० में दूसरा हमला किया तो बनू अदनान भागकर यमन चले गए । उस वक़्त बनू इसराईल के नबी हज़रत यरमियाह थे । इनके शिष्य बरखया अदनान के बेटे माद को अपने साथ शाम देश ले गये और जब बख्त नस्र का ज़ोर समाप्त हुआ और माद मक्का आए तो उन्हें क़बीला जुरहुम का केवल एक व्यक्ति जरशम बिन जलहमा मिला । माद ने उसकी लड़की मआना से शादी कर ली और उसी के पेट से नज़ार पैदा हुआ ।
     इसके बाद मक्का में जुरहुम की हालत खराब होती गई । उन्हें तंगदस्ती ने आ घेरा । नतीजा यह हुआ कि उन्होंने बैतुल्लाह की ज़ियारत करने वालों पर ज्यादतियां शुरू कर दी और खाना काबा का माल खाने से भी न झिझके । इधर बन अदनान भीतर ही भीतर उनकी इन हरकतों पर कुढ़ते और भड़कते रहे । इसीलिए जब बनू खुजाआ ने मरीज़्ज़हरान में पड़ाव किया और देखा कि बन् अदनान बनू जुरहुम से नफरत करते हैं , तो इसका फायदा उठाते हुए एक अदनानी कबीले ( बनू बिक्र बिन अब्दे मुनाफ़ बिन किनाना ) को साथ लेकर बनू जुरहुम के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी और उन्हें मक्का से निकाल कर सत्ता पर खुद क़ब्ज़ा कर लिया ।
     यह घटना दूसरी सदी ईसवी के बीच की है । बनू जुरहुम ने मक्का छोड़ते वक़्त ज़मज़म का कुंआ पाट दिया और उसमें कई ऐतिहासिक चीजें गाड़कर उसके चिह्न भी मिटा दिये । मुहम्मद बिन इसहाक़ का बयान है कि अम्र बिन हारिस बिन मुज़ाज जुरहुमी ने खाना काबा के दोनों हिरन और उसके कोने में लगा हुआ पत्थर - हजरे अस्वद – निकालकर ज़मज़म के कुएं में दफ़न कर दिया और अपने क़बीले बनू जुरहुम को साथ लेकर यमन चला गया ।
    बनू जुरहुम को मक्का से देश - निकाला का और वहां के शासन के समाप्त होने का बडा दख था । चनांचे अम्र ने इसी सिलसिले में ये पद कहे ' लगता है जहून से सनआ तक कोई जानने वाला था ही नहीं और न किसी क़िस्सा कहने वाले ने मक्का की रात - रात भर की मज्लिसों में कोई किस्सा सुनाया । क्यों नहीं ? निश्चय ही हम उसके निवासी थे , लेकिन समय की चालों और टूटे हुए भाग्यों ने हमें उजाड़ फेंका ।
      हज़रत इस्माईल का युग लगभग दो हज़ार ईसा पूर्व का है । इस हिसाब से मक्का में क़बीला जुरहुम का अस्तित्व लगभग दो हजार एक सौ वर्ष तक रहा और उनका शासन लगभग दो हज़ार वर्ष चला । बनू खुजाआ ने मक्का पर कब्ज़ा करने के बाद बनू बिक्र को शामिल किए बिना अपना शासन चलाया , अलबत्ता तीन बड़े महत्वपूर्ण पद ऐसे थे जो मुज़री क़बीलों के हिस्से में आए ।

1 . हाजियों को अरफ़ात से मुज़दलफ़ा ले जाना और यौमुन्नज़र - 13 जिलहिज्जा को जोकि हज के सिलसिले का अन्तिम दिन है

मिना से कूच करने का परवाना देना 

    यह पद इलयास बिन मुज़र के परिवार बनू गौस बिन मुर्रा को प्राप्त था , जो सूफा कहलाते थे । इस पद का स्पष्टीकरण इस तरह है कि उज़िलहिज्जा को हाजी कंकड़ी न मार सकते थे , यहां तक कि पहले सफा का एक आदमी कंकड़ी मार लेता , फिर हाजी कंकड़ी मार कर फारिग़ हो जाते और मिना से रवानगी का इरादा करते तो सूफ़ा के लोग मिना के एक मात्र रास्ते अक़बा के दोनों ओर घेरा डाल कर खड़े हो जाते और जब तक खुद न गजर लेते किसी को गुज़रने न देते ।
     उनके गुज़र लेने के बाद बाक़ी लोगों के लिए रास्ता खाली हो जाता । जब सूफा ख़त्म हो गये तो यह पद बनू तमीम के एक परिवार बनू साद बिन जैद मनात को मिल गया ।

2 . 10 ज़िलहिज्जा की सुबह को मुज़दलफ़ा से मिना की ओर रवानगी । यह पद बनू अदवान को प्राप्त था ।

3 . हराम महीनों को आगे - पीछे करना ।

यह पद बनू किनाना की एक शाखा बनू तमीम बिन अदी को प्राप्त था । मक्का पर बनू खुज़ाआ का आधिपत्य कोई तीन सौ वर्ष तक क़ायम रहा । यही समय था जब अदनानी क़बीले मक्का और हिजाज़ से निकल कर नज्द , इराक़ के आस - पास और बहरैन वगैरह में फैले और मक्का के पास - पड़ोस में सिर्फ कुरैश की कुछ शाखाएं बाक़ी रहीं , जो खानाबदोश थीं , उनकी अलग - अलग टोलियां थीं और बनू किनाना में उनके कुछ बिखरे घराने थे , मगर मक्का की हुकूमत और बैतुल्लाह के मुतवल्ली होने में उनका कोई हिस्सा न था , यहां तक कि कुसई बिन किलाब प्रकट हुआ ।
    कुसई के बारे में बताया जाता है कि वह अभी गोद ही में था कि उसके पिता का देहांत हो गया । इसके बाद उसकी मां ने बनू उज़रा के एक व्यक्ति रबीआ बिन हराम से शादी कर ली । यह क़बीला चूंकि शाम देश के पास - पड़ोस में रहता था , इसलिए कुसई की मां वहीं चली गई और वह कुसई को भी अपने साथ लेती गई । जब कुसई जवान हुआ , तो मक्का वापस आया । उस वक़्त मक्का का सरदार हुलैल बिन हब्शीया खुज़ाई था ।
     कुसई ने उसके पास उसकी बेटी हबी से विवाह का संदेशा दिया । हुलैल ने मंजूर कर लिया और शादी कर दी । इसके बाद जब हुलैल का देहान्त हुआ , तो मक्का और बैतुल्लाह के मुतवल्ली बनने के लिए खुज़ाआ और कुरैश के बीच लड़ाई छिड़ गई और उसके  नतीजे में मक्का और बैतुल्लाह पर कुसई का आधिपत्य स्थापित हो गया ।

लड़ाई की वजह क्या थी ? इस बारे में तीन बयान मिलते हैं

     एक यह कि जब कुसई की औलाद खूब फल - फूल गई , उसके पास धन - धान्य का बाहुल्य हो गया और उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ गई और उधर हुलैल का देहान्त हो गया , तो कुसई ने महसूस किया कि अब बनू खुजाआ और बनबिक्र के बजाए मैं काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का पर शासन करने का कहीं ज़्यादा अधिकारी हूं , उसे यह एहसास भी था कि कुरैश खालिस इस्माईली अरब हैं और बाक़ी आले इस्माईल के सरदार भी हैं , ( इसलिए सरदारी के हकदार वही हैं । ) चुनांचे उसने कुरैश और बनू खुजाआ के कुछ लोगों से बातचीत की कि क्यों न बनू खुजाआ और बूनबिक्र को मक्का से निकाल बाहर किया जाए ।   इन लोगों ने उसकी राय से सहमति व्यक्त की ।
    दूसरा बयान यह है कि - खुजाआ के कथनानुसार - खुद हुलेल ने कुसई को वसीयत की थी कि वह काबा की देखभाल करेगा और मक्का की बागडोर संभालेगा ।
   तीसरा बयान यह है कि हुलैल ने अपनी बेटी हुबी को बैतुल्लाह का मुतवल्ली बनाया था और अबू ग़बशान ख़ुज़ाई को उसका वकील बनाया था । चुनांचे हुबी के नायब की हैसियत से वही खाना काबा की कुंजियों का मालिक था । हुलैल का देहान्त हो गया , तो कुसई ने अबू ग़बशान से एक मशक शराब के बदले काबा का मुतवल्ली होना खरीद लिया था , लेकिन खुज़ाआ ने यह खरीदना - बेचना मंजूर न किया और कुसई को बैतुल्लाह से रोकना चाहा । इस पर कुसई ने बनू खुज़ाआ को मक्का से निकालने के लिए कुरैश और बनू किनाना को जमा किया और वे कुसई की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए जमा हो गए । बहरहाल कारण जो भी हो , घटनाओं का क्रम इस तरह है कि जब हुलैल का देहान्त हो गया और सूफा ने वही करना चाहा , जो वे हमेशा करते आए थे , तो कुसई ने कुरैश और किनाना के लोगों को साथ लिया और अक़बा के नज़दीक , जहां वे जमा थे , उनसे आकर कहा कि तुमसे ज़्यादा हम इस पद के हक़दार हैं ।  इस पर सफा ने लड़ाई छेड़ दी , पर कुसई ने उन्हें परास्त करके यह पद छीन लिया । यही मौका था जब खुजाआ और बनू बिक्र ने कुसई से अपना दामन खींचना शुरू कर दिया । इस पर कुसई ने उन्हें भी ललकारा , फिर क्या था । दोनों फरीकों में घमासान की लड़ाई शुरू हो गई और दोनों ओर के बहत - से आदी मारे गए । इसके बाद समझौते की आवाजें उठने लगी और बनूबिक्र के एक व्यक्ति यामर बिन औफ़ को अध्यक्ष बनाया गया । यामर ने फैसला किया कि खुजाआ के बाजए कुसई खाना काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का की सरदारी अपने हाथ में रखने का ज़्यादा हक़दार है , साथ ही कुसई ने जितना खन बहाया है , सब बेकार समझ कर पांव तले रौंद रहा हूं । अलबत्ता खजाआ और बनूबिक्र ने जिन लोगों को क़त्ल किया है , उनकी दियत ( जुर्माना ) अदा करें और खाना काबा को बेरोक - टोक कुसई के हवाले कर दें । इसी फैसले की वजह से यामर की उपाधि शद्दाख पड़ गई । ' शद्दाख का अर्थ है पांव तले रौंदने वाला ।

     इस फैसले के नतीजे में कुसई और कुरैश को मक्का पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो गया और कुसई बैतुल्लाह का धार्मिक नेता बन गया , जिसकी ज़ियारत के लिए अरब के कोने - कोने से आने वालों का तांता बंधा होता था । मक्का पर कुसई के आधिपत्य की यह घटना पांचवीं सदी ईसवी के मध्य अर्थात् 440 ई० की है ।

     कुसई ने मक्का की व्यवस्था इस तरह की कि कुरैश को मक्का के पास - पड़ोस से बुलाकर पूरा शहर उन पर बांट दिया और हर परिवार के रहने - सहने का ठिकाना तै कर दिया , अलबत्ता महीने आगे - पीछे करने वालों को , साथ ही आले सफ़वान बनू अदवान और बनू मुर्रा बिन औफ को उनके पदों पर बाक़ी रखा , क्योंकि कुसई समझता था कि यह भी दीन है , जिसमें रद्दोबदल करना सही नहीं ।

    कुसई का एक कारनामा यह भी है कि उसने काबा के हरम के उत्तर में दारुन्नदव : बनवाया । ( उसका द्वार मस्जिद की ओर था ) दारुन्नदव : असल में कुरैश की पार्लियामेंट थी , जहां तमाम बड़े - बड़े और अहम मामलों के फैसले होते थे । कुरैश पर दारुन्नदवः के बड़े उपकार हैं , क्योंकि यह उनके एक होने की गारंटी देता था और यहीं उनकी उलझी हुई समस्याएं बड़े अच्छे ढंग से तै होती थीं ।

    कुसई की सरदारी सबको मान्य थी । नीचे लिखी जिम्मेदारियां इसी का पता देती है

1 . दारुन्नदव की अध्यक्षता –

जहां बड़े - बड़े मामलों के बारे में मश्विरे होते थे और जहां लोग अपनी लड़कियों की शादियां भी करते थे ।

 2 . लिवा - 

यानी लड़ाई का झंडा कुसई ही के हाथों बांधा जाता था ।

3 . खाना काबा की देखभाल - 

इसका अर्थ यह है कि खाना काबा का द्वार कुसई ही खोलता था और वही खाना काबा की सेवा करता था और उसकी कुंजियां उसी के हाथ में रहती थीं ।

4 . सक़ाया ( पानी पिलाना ) - 

इसकी शक्ल यह थी कि कुछ हौज़ में हाजियों के लिए पानी भर दिया जाता था और उसमें कुछ खजूर और किशमिश डाल कर उसे मीठा बना दिया जाता था । जब हाजी लोग मक्का आते थे , तो उसे पीते थे ।

5 . रिफ़ादा ( हाजियों का आतिथ्य ) - 

इसका अर्थ यह है कि हाजियों के लिए आतिथ्य के रूप में खाना तैयार किया जाता था । इस उद्देश्य के लिए कुसई ने कुरैश पर एक खास रक़म तै कर रखी थी जो हज के मौसम में कुसई के पास जमा की जाती थी । कुसई इस रकम से हाजियों के लिए खाना तैयार कराता था । जो लोग तंगहाल होते या जिनके पास धन - दौलत न होता , वे यहीं खाना खाते थे । ये सारे पद कुसई को प्राप्त थे । कुसई का पहला बेटा अब्दुद्दार था , पर उसके बजाए दूसरा बेटा अब्दे मुनाफ़ कुसई के जीवन ही में नेतृत्व के स्थान पर पहुंच गया था ,
    इसलिए कुसई ने अब्दुद्दार से कहा कि ये लोग यद्यपि नेतृत्व में तुम पर बाज़ी ले  जा चुके हैं , पर मैं तुम्हें इनके बराबर करके रहूंगा ,
     इसलिए  कुसई ने अपने सारे पद और जिम्मेदारियों की वसीयत अब्दुद्दार के लिए कर दी अर्थात् दारुन्नदव : की अध्यक्षता , खाना काबा की निगरानी और देखभाल , झंडा बरदारी , पानी पिलाने का काम और हाजियों का सत्कार सब कुछ अब्दुद्दार को दे दिया ।
   चूंकि किसी काम में कुसई का विरोध नहीं किया जाता था और न उसकी कोई बात रद्द की जाती थी , बल्कि उसका हर कदम , उसके जीवन में भी और उसके मरने के बाद भी , पालन योग्य समझा जाता था , इसलिए उसके मरने के बाद उसके बेटों ने किसी विवाद के बिना उसकी वसीयत बाक़ी रखी ।
    लेकिन जब अब्दे मुनाफ़ का देहान्त हो गया , तो उसके बेटों ने इन पदो के सिलसिले में अपने चचेरे भाइयों अर्थात् अब्दुद्दार की सन्तान से झगड़ना शुरू किया , इसके नतीजे में कुरैश दो गिरोह में बंट गये और करीब था कि दोनों में लड़ाई हो जाती , मगर फिर उन्होंने समझौते की आवाज़ उठाई  और इन पदों को आपस में बांट लिया , चुनांचे हाजियों को पानी पिलाने और उनके आतिथ्य के काम बनू अब्दे मुनाफ़ को दिए गए और दारुन्नदव की अध्यक्षता , झंडा - बरदारी और खाना काबा की निगरानी और देखभाल बनू अब्दुद्दार के हाथ में रही ।
   फिर बनू अब्द मुनाफ़ ने अपने प्राप्त पदों के लिए कुरआ डाला , तो कुरआ हाशिम बिन अब्दे मुनाफ़ के नाम निकला , इसलिए हाशिम ने ही अपनी जिंदगी भर पानी पिलाने और हाजियों के आतिथ्य की व्यवस्था की , अलबत्ता जब हाशिम का देहान्त हो गया तो उनके भाई मुत्तलिब ने गद्दी संभाली , पर मुत्तलिब के बाद उनके भतीजे अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम ने - जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दादा थे.
      यह पद संभाल लिया और उनके बाद उनकी सन्तान उनकी जानशीं हुई , यहां तक कि जब इस्लाम का युग आया तो हज़रत अब्बास बिन मुत्तलिब इस पद पर आसीन थे ।
     इनके अलावा कुछ और पद भी थे , जिन्हें कुरैश ने आपस में बांट रखा था । इन पदों और इन दायित्वों द्वारा कुरैश ने एक छोटा - सा राज्य – बल्कि राज्य प्रशासन — बना रखा था , जिसकी सरकारी संस्थाएं और समितियां कुछ इस ढंग की थीं , जैसे आजकल संसदीय संस्थाएं और समितियां हुआ करती हैं । इन पदों का विवरण नीचे दिया जा रहा है

1 . ईसार , 

     यानी फालगिरी , भाग्य का पता लगाने के लिए बुतों के पास जो तीर रखे रहते थे , उनकी देखभाल और निगरानी । यह पद बनू जम्ह को प्राप्त था ।

2 . अर्थ , 

    यानी बुतों का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए जो चढ़ावे और नज़राने चढ़ाए जाते थे , उनका प्रबन्ध करना , साथ ही झगड़ों और मुक़दमों का फैसला करना । यह काम बनू सहम को सौंपा गया था ।

3 . शूरा , 

    यानी सलाहकार समिति , यह पद बनू असद को प्राप्त था ।

4 . अशनाक 

    यानी दियत और जुर्मानों की व्यवस्था , यह पद बन तैम को मिला हुआ था ।

5 . उनाब 

    यानी क़ौमी झंडाबरदारी , यह बनू उमैया का काम था ।

6 . कुबा

    यानी फ़ौज की व्यवस्था और घुड़सवारों का नेतृत्व । यह बनू मरुजूम के हिस्से में आया था ।

7 . सफ़ारत 

    यानी राजदूतत्व , यह बनू अदी का पद था ।

No comments:

Post a Comment