Sunday, 13 October 2019

अरब मुस्तारबा

इनके मूल पुरखे सैयिदिना इबाहीम अलैहिस्सलाम मूलत : इराक के एक नगर उर के रहने वाले थे । यह नगर फ़रात नदी के पश्चिमी तट पर कूफ़ा के करीब स्थित था । इसकी खुदाई के दौरान जो शिलालेख मिले हैं , उनसे उस नगर के बारे में बहुत - सी बातें सामने आई हैं और हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम के परिवार के कुछ विवरण और देशवासियों की धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों पर से भी परदा उठता है । यह मालूम है कि हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम यहां से हिजरत करके हजान नगर तशरीफ ले गए थे और फिर वहां से फलस्तीन जाकर उसी देश को अपनी पैग़म्बराना गतिविधियों का केन्द्र बना लिया था और दावत व तब्लीग़ ( प्रचार - प्रसार ) के लिए यहीं से देश के भीतर और बाहर संघर्षरत रहा करते थे । एक बार आप मिस्र तशरीफ़ ले गए । फ़िरऔन ने आपकी बीवी हज़रत सारा के बारे में सुना , तो उनके बारे में उसकी नीयत बुरी हो गई और उन्हें अपने दरबार में बरे इरादे से बलाया . लेकिन अल्लाह ने हज़रत सारा की दआ के नतीजे में अनदेखे रूप से फ़िरऔन की ऐसी पकड़ की कि वह हाथ - पांव मारने और फेंकने लगा । फिर हज़रत सारा की दुआ से ठीक हो गया । तीन बार की ऐसी दशा से उसे समझ में आ गया कि हज़रत सारा अल्लाह की बहुत खास और करीबी बन्दी हैं और वह हज़रत सारा की इस विशेषता से इतना प्रभावित हुआ कि हज़रत हाजरा ' को उनकी सेवा में दे दिया । फिर हज़रत सारा ने हज़रत हाजरा को हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम की पत्नी के रूप में पेश कर दिया ।
     हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम , हज़रत सारा और हज़रत हाजरा को साथ लेकर फ़लस्तीन वापस तशरीफ़ लाए , फिर अल्लाह ने हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम को हाजरा अलैहस्सलाम के पेट से एक बेटा - इस्माईल – अता फ़रमाया , लेकिन इस पर हज़रत सारा को जो नि : सन्तान थीं , बड़ी शर्म आई और उन्होंने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को मजबूर किया कि हज़रत हाजरा को उनके नए बच्चे सहित देश निकाला दे दें । हालात ने ऐसा रुख अपनाया कि उन्हें हज़रत सारा की बात माननी पड़ी और हज़रत हाजरा और बच्चे हज़रत इस्माईल को साथ लेकर हिजाज़ तशरीफ़ ले गए और वहां एक चटयल घाटी में बैतुल्लाह शरीफ़ के क़रीब ठहरा दिया ।
   उस वक़्त बैतल्लाह शरीफ़ न था , सिर्फ टीले की तरह उभरी हुई ज़मीन थी । बाढ़ आती थी तो पानी दाहिने - बाएं से कतरा कर निकल जाता था । वहीं मस्जिदे हराम के ऊपरी भाग में ज़मज़म के पास एक बहुत बड़ा पेड़ था । आपने उसी पेड़ के पास हज़रत हाजरा और हज़रत इस्माईल अलै० को छोड़ा था । उस वक़्त न मक्का में पानी था , न आदम , न आदमज़ाद । इसलिए हज़रत इबाहीम ने एक तोशेदान में खजूर और एक मश्केज़े में पानी रख दिया ।
   इसके बाद फ़लस्तीन वापस चले गए , लेकिन कुछ ही दिनों में खजूर और पानी खत्म हो गया और बड़ी कठिन घड़ी का सामना करना पड़ा , पर ऐसी कठिन घड़ी में अल्लाह की मेहरबानी से ज़मज़म का सोता फूट पड़ा और एक मुद्दत तक के लिए रोज़ी का सामान और जीवन की पंजी बन गया । ये बातें आम तौर से लोगों को मालूम हैं ।
    कुछ दिनों के बाद यमन से एक क़बीला आया , जिसे इतिहास में जुरहुम द्वितीय कहा जाता है । यह क़बीला इस्माईल अलैहिस्सलाम की मां से इजाजत लेकर मक्का में ठहर गया । कहा जाता है कि यह क़बीला पहले मक्का के आस - पास की घाटियों में ठहरा हुआ था । सहीह बुख़ारी में इतना स्पष्टीकरण मौजूद है कि ( रहने के उद्देश्य से ) ये लोग मक्का में हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के आने के बाद और उनके जवान होने से पहले आये थे , लेकिन इस घाटी से उनका गुज़र इससे पहले भी हुआ करता था ।
     हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपने छोड़े हुओं की निगरानी के लिए कभी - कभी मक्का तशरीफ़ लाया करते थे , लेकिन यह मालमू न हो सका कि इस तरह उनका कितनी बार आना हुआ , हां , ऐतिहासिक स्रोतों से उनका चार बार आना साबित है , जो इस तरह है
     1 . कुरआन मजीद में बयान किया गया है कि अल्लाह ने हज़रत इबाहीम अलैहिस्सलाम को सपने में दिखलाया कि वह अपने सुपुत्र ( हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम ) को ज़िम्ह कर रहे हैं । यह सपना एक प्रकार से अल्लाह का हुक्म था । बाप - बेटे दोनों जब अल्लाह के इस हुक्म को पूरा करने के लिए तैयार हो गये और बाप ने बेटे को माथे के बल लिटा दिया , तो अल्लाह ने पुकारा , ऐ इब्राहीम ! तुमने सपने को सच कर दिखाया । हम अच्छे लोगों को इसी तरह बदला देते हैं । निश्चय ही यह खुली परीक्षा थी और अल्लाह ने उन्हें फ़िदए ( प्रतिदान ) में एक बड़ा , जिब्ह के लायक जीव अता कर दिया ।                 बाइबिल की किताब पैदाइश में उल्लिखित है कि हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम , हज़रत इसहाक़ अलैहिस्सलाम से तेरह साल बड़े थे और कुरआन से मालूम होता है कि यह घटना हज़रत इसहाक़ अलैहिस्सलाम के जन्म से पहले घटी थी , क्योंकि पूरी घटना का उल्लेख कर चुकने के बाद हज़रत इसहाक़ अलैहिस्सलाम के जन्म की शुभ - सूचना दी गई है ।        इस घटना से सिद्ध होता है कि हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के जवान होने से पहले कम से कम एक बार हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने मक्के का सफ़र ज़रूर किया था । बाक़ी तीन सफ़रों का विवरण सहीह बुखारी की एक लंबी रिवायत में है , जो इब्ने अब्बास रजि० से मरफूअन रिवायत की गई है । उसका सार यह है
       2 . हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम जब जवान हो गये , जुरहुम से अरबी सीख ली और उनकी निगाहों में जंचने लगे , तो उन लोगों ने अपने परिवार की एक महिला से आपका विवाह कर दिया । उसी बीच हज़रत हाजरा का देहान्त हो गया । उधर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को ख्याल हुआ कि अपने छोड़े हुओं को देखना चाहिए । चुनांचे वह मक्का तशरीफ़ ले गये । लेकिन हज़रत इस्माईल से मुलाक़त न हुई । बहू से हालात मालूम किए । उसने तंगदस्ती की शिकायत की । आपने वसीयत की कि इस्माईल अलैहिस्सलाम आएं तो कहना , अपने दरवाजे की चौखट बदल दें । इस वसीयत का मतलब हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम समझ गए । बीवी को तलाक दे दी और एक दूसरी औरत से शादी कर ली , जो अधिकतर इतिहासकारों के कथनानुसार जुरहुम के सरदार बुखारी का भी झुकाव है । चुनांचे अपनी सहीह में उन्होंने एक बाब ( अध्याय ) बांधा है , जिसका शीर्षक है ' इस्माईल अलैहिस्सलाम की ओर यमन की निस्बत ' और इस पर कुछ हदीसों से तर्क जुटाया है । हाफ़िज़ इब्ने हजर ने उसकी व्याख्या में इस बात को प्रमुखता दी है कि कह्तान , नाबित बिन इस्माईल अलैहिस्सलाम की नस्ल से थे ।
     कीदार बिन इस्माईल अलैहिस्सलाम की नस्ल मक्का ही में फलती - फूलत रही , यहां तक कि अदनान और फिर उनके बेटे मअद का ज़माना आ गया अदनानी अरब का वंश - क्रम सही तौर पर यहीं तक सुरक्षित है ।
     अदनान नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के वंश - क्रम की 21वीं पीढ़ी । पड़ते हैं  कुछ रिवायतों में बयान किया गया है कि आप जब अपने वंश - क्रम उल्लेख करते तो अदनान पर पहुंच कर रुक जाते और आगे न बढ़ते , फ़रमाते । वंश - क्रम के विशेषज्ञ ग़लत कहते हैं ।
   मगर विद्वानों का एक गिरोह कहता कि अदनान से आगे भी वंश - क्रम बताया जा सकता है । उन्होंने इस रिवायत = कमजोर कहा है । लेकिन उनके नज़दीक नसब के इस हिस्से में बड़ा मतभेद मिलाप संभव नहीं । अल्लामा मंसूरपुरी ने इब्ने साद की रिवायत को प्रमुखता है जिसे तबरी और मसऊदी आदि ने भी दूसरे कथनों और रिवायतों के सा ज़िक्र किया है । इस रिवायत के अनुसार अदनान और हज़रत इबाही अलैहिस्सलाम के बीच चालीस पीढ़ियां हैं ।
      बहरहाल मअद के बेटे नज़ार से — जिनके बारे में कहा जाता है कि इन अलावा मअद की कोई सन्तान न थी - कई परिवार अस्तित्व में आए । वास्तव नज़ार के चार बेटे थे और हर बेटा एक बड़े क़बीले की बुनियाद बना ।
चारों में नाम ये हैं

1 . इयाद , 2 . अनमार , 3 . रबीआ और 4 . मुज़र । 

इनमें से अन्तिम दो कबीलों की शाखाएं और उपशाखाएं बहुत ज्यादा हुईं
    चुनांचे रबीआ से असद बिन रबीआ , अन्जा , अब्दुल कैस , वाइल , बिक्र , तग़लब और बनू हनीफ़ा वगैरह अस्तित्व में आए । मुज़र की सन्तान दो बड़े क़बीलों में विभाजित हुई

1 . कैस ईलान बिन मुज़र ,2 . इलयास बिन मुज़र

   कैस ईलान से बनू सुलैम , बनू हवाज़िन , बनू ग़तफ़ान , ग़तफ़ान से अबस , जुबियान , अशजअ और ग़नी बिन आसुर क़बीले अस्तित्व में आए ।
     इलयास बिन मुज़र से तमीम बिन मुर्रा , बुज़ैल बिन मुदरका , बनू असद बिन खुञ्जमा और किनाना बिन खुर्जामा के क़बीले अस्तित्व में आए । फिर किनाना से कुरैश का क़बीला अस्तित्व में आया । यह क़बीला फ़िह बिन मालिक बिन नज बिन किनाना की सन्तान है ।
   फिर कुरैश भी विभिन्न शाखाओं में बंटे । मशहूर कुरैशी शाखाओं के नाम ये हैं -
 जम्ह , सम , अदी , मजूम , तैम ,
 जोहरा और कुसई बिन किलाब के परिवार , यानी अब्दुद्दार , असद बिन अब्दुल उज़्ज़ा और अब्दे मुनाफ़ , ये तीनों कुसई के बेटे थे ।
  इनमें से अब्द मुनाफ़ के चार बेटे हुए , जिनसे चार उप क़बीले अस्तित्व में आए , यानी अब्द शम्स , नौफ़ल , मुत्तलिब और हाशिम । इन्हीं हाशिम की नस्ल से अल्लाह ने हमारे हुजूर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को चुना ।             
     अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इर्शाद है कि अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सन्तान में से इस्माईल अलैहिस्सलाम को चुना , फिर इस्माईल अलैहिस्सलाम की औलाद में से किनाना को चुना और किनाना की नस्ल से कुरैश को चुना , फिर कुरैश में से बनू हाशिम को चुना और बनू हाशिम में से मुझे चुना ।
      इब्ने अब्बास रजि० का बयान है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया , अल्लाह ने तमाम जीवों को पैदा किया , तो मुझे सबसे अच्छे गिरोह में बनाया , फिर इनके भी दो गिरोहों में से ज़्यादा अच्छे गिरोह के अन्दर रखा , फिर कबीलों को चुना , तो मुझे सबसे अच्छे कबीले के अन्दर बनाया , फिर घरानों को चुना तो मुझे सबसे अच्छे घरानों में बनाया , इसलिए मैं अपनी जात ( निज ) के एतबार से भी सबसे अच्छा हूं और अपने घराने के एतबार से भी सबसे बेहतर हूं ।
      बहरहाल अदनान की नस्ल जब ज्यादा बढ़ गई तो वह रोजी - रोटी की खोज में अरब के विभिन्न भू - भाग में फैल गई , चुनांचे क़बीला अब्दुल कैस ने , बिक्र बिन वाइल की कई शाखाओं ने और बनू तमीम के परिवारों ने बहरैन का रुख किया और उसी क्षेत्र में जा बसे ।
      बनू हनीफ़ा बिन साब बिन अली बिन बिक्र ने यमामा का रुख किया और उसके केन्द्र हिज्र में आबाद हो गये । बिक्र बिन वाइल की बाक़ी शाखाओं ने , यमामा से लेकर बहरैन , काजिमा तट , खाड़ी , सवादे इराक , उबुल्ला और हय्यत तक के इलाकों में रहना - सहना शुरू कर दिया ।
        बनू तग़लब फरातिया द्वीप में जा बसे , अलबत्ता उनकी कुछ शाखाओं ने बनूं बिक्र के साथ रहना - सहना पसन्द किया । बनू तमीम बादिया बसरा में जाकर आबाद हो गए ।
       बनू सुलैम ने मदीना के करीब डेरे डाले । उनकी आबादी वादिल कुरा से शुरू होकर खैबर और मदीना के पूरब से गुज़रती हुई हर्रा बनू सुलैम से मिले दो पहाड़ों तक फैली हुई थी ।
    बनू सक़ीफ़ तायफ़ में रहने - सहने लगे और बनू हवाज़िन ने मक्का के पूरब में औतास घाटी के आस - पास डेरे डाले । उनकी आबादी मक्का - बसरा राजमार्ग  पर स्थित थी ।
      बनू असद तैमा के पूरब और कूफ़ा के पश्चिम में आबाद हो गए थे । उनके और तैमा के बीच बनू तै का एक परिवार बहतर आबाद था । बनू असद की आबादी और कूफ़े के बीच पांच दिन की दूरी थी ।
    बनू ज़िबयान तैमा के क़रीब हौरान के आस - पास आबाद हो गये थे । - तिहामा में बन किनाना के परिवार रह गये थे । इनमें से कुरैशी परिवारों का रहना - सहना मक्का और उसके आस - पास था । ये लोग बिखरे हुए थे , ये आपस में बंधे हुए न थे , यहां तक कि कुसई बिन किलाब उभरा और कुरैशियों को एक बनाकर उन्हें मान - सम्मान और उच्च व श्रेष्ठ स्थान दिलाया । 

अरब की जातियां

ऐतिहासिक रूप से, इतिहासकारों ने अब जाति को तीन भागों में विभाजित किया है।

1 अरब बैदा

 यही है, उन प्राचीन अरब कुलों और जाटों, जो गायब हो गए हैं और उनसे संबंधित आवश्यक चीजें, जैसे कि विज्ञापन, सम्पूर्णा, तसम, जदीस, अमालिका वगैरह।

2. अरब अरिव

यह अरब कबीला, जो कि यारूब बिन यशब बिन कहत के अमीर का है। उन्हें कहतानी अरब कहा जाता है।

3. अरब मस्टर्बा

अरब कबीला हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम की नस्ल का है। उन्हें अदनानी अरब कहा जाता है।
यमन आरिबा यानी कवानी अरब का मूल स्थान था। इस तरह उनका वंश और करबले अलग-अलग शाखाओं में बढ़े, फैले और बढ़े। इनमें से दो जनजातियों ने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की।

(A) हिमालय

जिसकी प्रसिद्ध शाखाएँ जयदुल जम्मू, कुजा और सकामिक हैं।

(B) कहलन 

जिसकी प्रसिद्ध शाखाएँ हमन, अनमर, ताए, मजाहिज हैं। किंडा, लखम, जुझम, अजद, औस, खेसर और जाफना - बच्चे हैं, जो बाद में शाम क्षेत्र के आसपास के क्षेत्र में हावी हो गए और एले गासन के रूप में जाने जाते हैं।
     आम कल्लानी जनजाति बाद में यमन छोड़कर अरब प्रायद्वीप के विभिन्न हिस्सों में फैल गई। उनके देश छोड़ने की सामान्य घटना ने पाल को सेट कर दिया। इरम से कुछ समय पहले, रोमियों ने मिस्र और शाम (सीरिया) पर कब्जा कर लिया और यमनी के व्यापारी समुद्री मार्ग पर कब्जा कर लिया। लिया और भूमि मार्ग सुविधाओं को समाप्त करके अपना आधार बढ़ाया। जीवित कहानियों का व्यापार नष्ट हो गया

Thursday, 10 October 2019

मोहम्मद से कुरैश के सरदारों की बात - चीत

उत्वा की उपरोक्त पेशकश का जिस ढंग से अल्लाह के रसूल मोहम्मदने उत्तर दिया था , उससे करैश की आशाएं परे तौर पर खत्म नहीं हुई थी , क्योंकि आपके उत्तर में उनकी पेशकश को ठुकराने या कुबूल करने की बात स्पष्ट न थी , बस आपने कुछ आयतों की तिलावत कर दी थी , जिन्हें उत्बा पूरे तौर पर न समझ सका था और जहां से आया था , वहीं वापस चला गया था , इसलिए कुरैश ने आपस में फिर मश्विरा किया । मामले के तमाम पहलुओं पर नज़र दौड़ाई और तमाम संभावनाओं पर विचार - विमर्श किया । इसके बाद एक दिन सूरज डूबने के बाद काबे के पास जमा हुए और अल्लाह के रसूल सल्ल० को बुला भेजा । आप खैर ( भलाई ) की उम्मीद लिए हुए जल्दी में तशरीफ़ लाए । जब उनके बीच में बैठ गए तो उन्होंने वैसी ही बातें कहीं जैसी इज्जत तुम्हारी इज्जत होगी और उसका वजूद सबसे बढ़कर तुम्हारे लिए बेहतरी की वजह होगा । लोगों ने कहा , अबुल वलीद ! खुदा की कसम , तुम पर भी उसकी जुबान का जादू चल गया । उत्वा ने कहा , उस व्यक्ति के बारे में मेरी राय यही है , अब तम्हें जो ठीक मालूम हो , करो । एक दूसरी रिवायत में यह उल्लेख है कि मोहम्मदने जब तिलावत शुरू की तो उत्वा चुपचाप सुनता रहा । जब आप अल्लाह के इस कथन पर पहुंचे ' पस अगर वे मुंह फेरें तो तुम कह दो कि मैं तुम्हें आद व समूद की कडक जैसी एक कड़क के खतरे से सचेत कर रहा हूं । ' तो उत्बा थर्रा कर खड़ा हो गया और यह कहते हुए अपना हाथ अल्लाह के रसूल मोहम्मदके मुंह पर रख दिया कि मैं आपको अल्लाह का और नातेदारी का बास्ता देता हं ( कि ऐसा न करें ) । उसे खतरा था कि कहीं यह डरावा आन न पड़े । इसके बाद वह कौम के पास गया और ऊपर लिखी बातें हुईं । अल्लाह के रसूल मोहम्मदसे कुरैश के सरदारों की बात - चीत उत्वा की उपरोक्त पेशकश का जिस ढंग से अल्लाह के रसूल मोहम्मदने उत्तर दिया था , उससे करैश की आशाएं परे तौर पर खत्म नहीं हुई थी , क्योंकि आपके उत्तर में उनकी पेशकश को ठुकराने या कुबूल करने की बात स्पष्ट न थी , बस आपने कुछ आयतों की तिलावत कर दी थी , जिन्हें उत्बा पूरे तौर पर न समझ सका था और जहां से आया था , वहीं वापस चला गया था , इसलिए कुरैश ने आपस में फिर मश्विरा किया । मामले के तमाम पहलुओं पर नज़र दौड़ाई और तमाम संभावनाओं पर विचार - विमर्श किया । इसके बाद एक दिन सूरज डूबने के बाद काबे के पास जमा हुए और अल्लाह के रसूल सल्ल० को बुला भेजा । आप खैर ( भलाई ) की उम्मीद लिए हुए जल्दी में तशरीफ़ लाए । जब उनके बीच में बैठ गए तो उन्होंने वैसी ही बातें कहीं जैसी उत्वा से कही थीं और वही पेशकश की जो उत्वा ने की थी , शायद उनका विचार । रहा हो कि बहुत संभव है कि उत्वा के पेशकश करने से आपको पूरा सन्तोष न । हुआ हो , इसलिए जब सारे सरदार मिलकर इस पेशकश को दोहराएंगे तो आपको सन्तोष हो जाएगा और आप उसे कुबूल कर लेंगे , मगर आप सल्ल० ने फ़रमाया ' मेरे साथ यह बात नहीं जो आप लोग कह रहे हैं । मैं आप लोगों के पास जो कुछ लेकर आया हूं , वह इसलिए नहीं लेकर आया हं कि मझे आपका माल चाहिए या आपके अन्दर शरफ़ चाहिए या आप पर शासन करना चाहता हूं नहीं , बल्कि मुझे अल्लाह ने आपके पास पैग़म्बर बनाकर भेजा है , मुझ पर अपनी किताब उतारी है और मुझे हुक्म दिया है कि मैं आपको खुशखबरी दूं और डराऊं , इसलिए मैंने आप लोगों तक अपने रब का पैग़ाम पहुंचा दिया , आप लोगों को नसीहत कर दी । अब अगर आप लोग मेरी लाई हुई बात कुबूल करते हैं , तो यह दुनिया और आख़िरत में आप लोगों का नसीब और अगर रद्द करते हैं तो मैं अल्लाह के फैसले का इन्तिज़ार करूंगा , यहां तक कि वह मेरे और आपके बीच फैसला फरमा दे । इस जवाब के बाद उन्होंने एक दूसरा पहल बदला . कहने लगे , आप अपने रब से सवाल करेंगे कि वह हमारे पास से उन पहाड़ों को हटा कर खुला हुआ मैदान बना दे और उसमें नदियां बहा दे और हमारे मुर्दो , मुख्य रूप से कुसई बिन किलाब को जिंदा कर लाए । अगर वह आपको सच्चा कर दिखाएं तो हम भी ईमान लाएंगे । आपने उनकी इस बात का भी वही जवाब दिया । इसके बाद उन्होंने एक तीसरा पहलू बदला । कहने लगे , आप अपने रब से सवाल करें कि वह एक फ़रिश्ता भेंज दे , जो आपकी पुष्टि करे और जिससे हम आपके बारे में रुजू भी कर सकें और यह भी सवाल करें कि आपके लिए बारा हों , खज़ाने हों और सोने - चांदी के महल हों । आपने इस बात का भी वही जवाब दिया । इसके बाद उन्होंने एक चौथा पहलू बदला , कहने लगे कि अच्छा , तो आप हम पर अज़ाब ही ला दीजिए * आसमान का कोई टुकड़ा ही गिरा दीजिए , जैसा कि आप कहते और धमकियां देते रहते हैं । आपने फरमाया , इसका अख्तियार अल्लाह को है , वह चाहे तो ऐसा कर सकता है । उन्होंने कहा , क्या आपके रब को मालूम था कि हम आपके साथ बैठेंगे , आपसे सवाल व जवाब करेंगे और आपसे मांग करेंगे कि वह आपको सिखा देता कि आप हमें क्या जवाब देंगे और अगर हमने आपकी बात न मानी तो वह हमारे साथ क्या करेगा ? फिर आखिर में उन्होंने सख्न धमकी दी । कहने लगे , सुन लो ! जो कुछ कर चुके हो , उसके बाद हम तुम्हें यों ही नहीं छोड़ देंगे , बल्कि या तो तुम्हें मिटा देंगे या खुद मिट जाएंगे । यह सुनकर अल्लाह के रसूल मोहम्मदउठ गए और अपने घर वापस आ गए । आपको ग़म व अफ़सोस था कि जो आशाएं आपने लगा रखी थी , वह पूरी न हुई ।

कुरैश का आदमी मोहम्मद के दरबार में

इन दोनों महान योद्धाओं यानी हज़रत हमजा बिन अब्दुल मुत्तलिब और । हज़रत उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हुमा के मुसलमान हो जाने के बाद दमन के बादल छटने शुरू हुए और मुसलमानों पर अत्याचार के जो पहाड़ तोड़े जा रहे थे , उसकी जगह सूझ - बूझ ने लेनी शुरू की ।
    इसलिए  मुश्किों ने यह कोशिश की कि इस दावत से नबी का जो मक्सद और मंशा हो सकता है , उसे जुटाने की बात कह के आपको आपके प्रचार - प्रसार से रोकने की सौदेबाज़ी की जाए , लेकिन उन बेचारों को पता न था कि यह पूरी सृष्टि जिसमें सूरज उगता है , आपकी दावत के मुकाबले में एक तिनके की हैसियत भी नहीं रखती । 
   इसलिए उन्हें । अपनी योजना में बुरी तरह विफल होना पड़ा । इब्ने इस्हाक़ ने यजीद बिन ज़ियाद के वास्ते से मुहम्मद बिन काब कुरजी का  यह बयान नक़ल किया है कि मुझे बताया गया कि उत्वा बिन रबीआ ने , जो कौम का सरदार था , एक दिन कुरैश की एक सभा में कहा और उस वक़्त अल्लाह के रसूल मोहम्मदमस्जिदे हराम में एक जगह अकेले बैठे हुए थे कि ' कुरैश के लोगो ! क्यों न मैं मुहम्मद के पास जाकर उनसे बात करूं और उनके सामने कुछ बातें रखं , हो सकता है वह कोई चीज़ कुबूल कर लें , तो जो कुछ वह कुबूल करेंगे , उसे देकर हम उन्हें अपने विरोध से रोके रखेंगे । ' ( यह उस वक़्त की बात है , जब हज़रत हमज़ा मुसलमान हो चुके थे और मुश्रिकों ने यह देख लिया था कि मुसलमानों की तायदाद बराबर बढ़ती ही जा रही है । मुश्किों ने कहा , अबुल वलीद ! आप जाइए और उनसे बात कीजिए । इसके बाद उत्बा उठा और अल्लाह के रसूल मोहम्मदके पास जाकर बैठ गया , फिर बोला ' हमारी क़ौम में तुम्हारा जो पद और स्थान है और तुम्हारा जो श्रेष्ठ वंश है , वह तुम्हें मालूम ही है और अब तुम अपनी क़ौम में एक बड़ा मामला लेकर आए हो , जिसकी वजह से तुमने उनके समाज में फूट डाल दी . उनकी सोच को मूर्खता बता दी । उनके उपास्यों और उनके दीन ( धर्म ) में दोष निकाले और उनके जो बाप - दादा गुज़र चुके हैं , उन्हें ' काफिर ' ठहरा दिया , इसलिए मेरी बात सुनो । मैं तुमसे कुछ बातें कह रहा हूं , उन पर सोचो , हो सकता है कि कोई बात मान लो । ' - अल्लाह के रसूल मोहम्मदने फरमाया , अबुल वलीद ! कहो , मैं सुनूंगा । अबुल वलीद ने कहा , भतीजे ! यह मामला जिसे तुम लेकर आए हो , अगर तुम इससे यह चाहते हो कि माल हासिल करो , तो हम तुम्हारे लिए इतना माल जमा किए देते हैं कि तुम हम में सबसे ज़्यादा मालदार हो जाओ और अगर तुम यह चाहते हो कि पद - प्रतिष्ठा मिले , तो हम तुम्हें अपना सरदार बनाए लेते हैं , यहां तक कि तुम्हारे बिना किसी मामले का फ़ैसला न करेंगे , और अगर तुम चाहते हो कि बादशाह बन जाओ , तो हम तुम्हें अपना बादशाह बनाए लेते हैं और अगर यह जो तुम्हारे पास आता है , कोई जिन्न - भूत है , जिसे तुम देखते हो , लेकिन अपने आप से उसे दूर नहीं कर सकते , तो हम तुम्हारे लिए इसका इलाज खोजे देते हैं और इस सिलसिले में हम अपना इतना माल खर्च करने को तैयार हैं कि तुम स्वास्थ्य प्राप्त कर सको , क्योंकि कभी - कभी ऐसा होता है कि जिन्न - भूत इंसान पर ग़ालिब आ जाता है और उसका इलाज करना पड़ता है । 
   उत्वा ये बातें करता रहा और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व । सल्लम सुनते रहे । जब वह कह चुका , तो आपने फरमाया ' अबुल वलीद ! तुम कह चुके ? ' उसने कहा , ' हां ' आपने फरमाया , ' अच्छा , अब मेरी सुनो । ' उसने कहा , ' ठीक है . सुनूंगा । ' आपने फ़रमाया ' हामीम , यह रहमान व रहीम की ओर से उतारी हुई ऐसी किताब है , जिसकी आयतें खोल - खोल कर बयान कर दी गई हैं - अरबी कुरआन उन लोगों के लिए जो ज्ञान रखते हैं , खुशखबरी देने वाला और डराने वाला है . लेकिन ज्यादातर लोगों ने मुख मोड़ा और वे सुनते नहीं । कहते हैं कि जिस चीज़ की ओर तुम हमें बुलाते हो , उसके लिए हमारे दिलों पर परदा पड़ा हुआ है । . . . ' अल्लाह के रसूल मोहम्मदआगे पढ़ते जा रहे थे । और उत्वा अपने दोनों हाथ पीछे ज़मीन पर टेके चुपचाप सुनता जा रहा था । जब आप सज्दे की आयत पर पहुंचे तो आपने सज्दा किया , फिर फ़रमाया ' अबुल वलीद ! तुम्हें जो कुछ सुनना था , सुन चुके , अब तुम जानो और तुम्हारा काम जाने । ' उत्वा उठा और सीधा अपने साथियों के पास आया । उसे आता देखकर मुश्किों ने आपस में एक दूसरे से कहा , खुदा की कसम ! अबुल वलीद तुम्हारे पास वह चेहरा लेकर नहीं आ रहा है जो चेहरा लेकर गया था । फिर जब अबुल वलीद आकर बैठ गया , तो लोगों ने पूछा , अबुल वलीद ! पीछे की क्या खबर है ? उसने कहा , ' पीछे की खबर यह है कि मैंने एक ऐसा कलाम सुना है कि वैसा कलाम , खुदा की कसम ! मैंने कभी नहीं सुना । खुदा की क़सम ! वह न कविता है , न जादू , न कहानत । कुरैश के लोगो ! मेरी बात मानो और इस मामले को मझ पर छोड़ दो । ( मेरी राय यह है कि ) उस व्यक्ति को उसके हाल पर छोड दो कि अलग - थलग बैठे रहो । खुदा की कसम ! मैंने उसका जो कथन सूना है , उससे कोई बड़ी घटना घटित होकर रहेगी । फिर अगर उस व्यक्ति को अरब ने मार डाला , तो तुम्हारा काम दूसरों के ज़रिए अंजाम पा चुका होगा और अगर यह व्यक्ति अरब पर छा गया तो उसकी बादशाही तुम्हारी बादशाही और उसकी इज्जत तुम्हारी इज्जत होगी और उसका वजूद सबसे बढ़कर तुम्हारे लिए बेहतरी की वजह होगा । लोगों ने कहा , अबुल वलीद ! खुदा की कसम , तुम पर भी उसकी जुबान का जादू चल गया । उत्वा ने कहा , उस व्यक्ति के बारे में मेरी राय यही है , अब तम्हें जो ठीक मालूम हो , करो । एक दूसरी रिवायत में यह उल्लेख है कि मोहम्मदने जब तिलावत शुरू की तो उत्वा चुपचाप सुनता रहा । जब आप अल्लाह के इस कथन पर पहुंचे ' पस अगर वे मुंह फेरें तो तुम कह दो कि मैं तुम्हें आद व समूद की कडक जैसी एक कड़क के खतरे से सचेत कर रहा हूं । ' तो उत्बा थर्रा कर खड़ा हो गया और यह कहते हुए अपना हाथ अल्लाह के रसूल मोहम्मदके मुंह पर रख दिया कि मैं आपको अल्लाह का और नातेदारी का बास्ता देता हं ( कि ऐसा न करें ) । उसे खतरा था कि कहीं यह डरावा आन न पड़े । इसके बाद वह कौम के पास गया और ऊपर लिखी बातें हुईं ।

Wednesday, 9 October 2019

हज़रत हमज़ा और उमर का इस्लाम ले आना


हज़रत हमज़ा रजि० का इस्लाम ले आना

मक्का का वातावरण अत्याचार और दमन के इन काले बादलों से गम्भीर हो गया था कि अचानक एक बिजली चमकी और सताए जा रहे लोगों का रास्ता चमक उठा , यानी हज़रत हमज़ा रजि० मुसलमान हो गए । उनके इस्लाम लाने की घटना सन् 06 नबवी के अन्त की है और सही अनुमान यही है कि वह ज़िलहिज्जा के महीने में मुसलमान हुए थे । उनके इस्लाम लाने की वजह यह है कि एक दिन अब जहल सफा पहाड़ी के नज़दीक अल्लाह के रसूल मोहम्मदके पास से गुज़रा तो आपको पीड़ा पहुंचाई और बुरा - भला कहा । अल्लाह के रसूल मोहम्मदचुप रहे और कुछ भी न कहा , लेकिन इसके बाद उसने आपके मा पर एक पत्थर दे मारा , जिससे ऐसी चोट आई कि खून बह निकला । फिर वह खाना काबा के पास कुरैश की सभा में जा बैठा । अब्दुल्लाह बिन जुदआन की एक लौंडी सफा पहाड़ी पर स्थित अपने मकान से यह पूरा दृश्य देख रही थी । हज़रत हमजा कमान लटकाए शिकार से वापस आए तो उसने उनसे अबू जहल की सारी हरकत कह सुनाई । हज़रत हमज़ा गुस्से से भड़क उठे । यह कुरैश के सबसे ताकतवर और मज़बूत जवान थे । किस्सा सुनकर एक क्षण के लिए भी नहीं रुके । दौड़ते हुए और यह तहैया करते हुए आए कि ज्यों ही अबू जहल का सामना होगा , उसकी मरम्मत कर देंगे , इसलिए मस्जिदे हराम में दाखिल होकर सीधे उसके सर पर जा खड़े हुए और बोले ' ओ अपने चूतड़ से पाद निकालने वाले ! तू मेरे भतीजे को गाली देता है , हालांकि मैं भी उसी के दीन पर हूं । ' इसके बाद कमान से इस ज़ोर की मारी कि उसके सर पर बड़ा घाव हो गया । इस पर अबू जहल के क़बीले बनू मजूम और हज़रत हमज़ा रजि० के कबीले बनू हाशिम के लोग एक दूसरे के खिलाफ भड़क उठे , लेकिन अबू जहल ने यह कहकर उन्हें चुप करा दिया कि अबू अम्मारा को जाने दो । मैने वाक़ई उसके भतीजे को बहुत बुरी गाली दी थी । शुरू में हज़रत हमजा का इस्लाम मात्र इस भावना के साथ था कि उनके रिश्तेदार की तौहीन क्यों की गई , लेकिन फिर अल्लाह ने उनका सीना खोल दिया और उन्होंने इस्लाम का दामन मज़बूती से थाम लिया और मुसलमानों ने उनकी वजह से बड़ी शक्ति महसूस की ।


हज़रत उमर रजि० का इस्लाम लाना 

अत्याचार और दमन के इन काले बादलों में एक और बिजली चमकी , जिसकी चमक पहले से जोरदार थी । यानी हज़रत उमर रजि० मुसलमान हो गए । उनके इस्लाम लाने की घटना सन् 06 नबवी की है । वह हज़रत हमज़ा रजि० के सिर्फ तीन दिन बाद मुसलमान हुए थे और मोहम्मदने उनके ईमान लाने की दुआ की थी । इसलिए इमाम तिर्मिज़ी ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रजि० से रिवायत की है और इसे सहीह भी करार दिया है । इसी तरह तबरानी ने हज़रत इब्ने मसऊद रजि० और हज़रत अनस रजि० से रिवायत की है कि मोहम्मदने फरमाया ' ऐ अल्लाह ! उमर बिन ख़त्ताब और अबू जहल बिन हिशाम में से जो व्यक्त तेरे नज़दीक अधिक प्रिय है , उसके ज़रिए से इस्लाम को ताक़त पहुंचा । ( अल्लाह ने यह दुआ कुबूल फ़रमाई और हज़रत उमर रजि० मुसलमान हो गए ) अल्लाह के नज़दीक इन दोनों में अधिक प्रिय हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने की तमाम रिवायतों पर नज़र डालने से यह बात उभर कर सामने आती है कि उनके दिल में इस्लाम धीरे - धीरे उतरा । उचित मालूम होता है कि इन रिवायतों का सार प्रस्तुत करने से पहले हज़रत उमर रजि० के स्वभाव , विचारों और भावनाओं की ओर भी संक्षेप में संकेत कर दिया जाए । हज़रत उमर रजि० अपनी तेज़ी और सख्ती के लिए मशहूर थे । मुसलमानों ने लंबे समय तक उनके हाथों तरह - तरह की सख्तियां झेली थीं । ऐसा लगता है कि उनके भीतर उनकी अपनी एक दूसरे से टकराने वाली भावनाएं आपस में जूझ रही थीं । इसलिए वह एक ओर तो बाप - दादा की गढ़ी हुई रस्मों का बड़ा आदर करते थे , शराब पीते थे और खेल - तमाशे के शौक़ीन थे , लेकिन दूसरी ओर वह ईमान व अक़ीदे की राह में मुसलमानों की दृढ़ता और विपदाओं को झेलने की उनकी सहन - शक्ति की भी सराहना करते थे । फिर उनके भीतर सोचने - समझने वालों की तरह प्रश्नों का एक तांता था जो रह - रहकर उभरा करता था कि इस्लाम जिस बात की दावत दे रहा है , शायद वही अधिक श्रेष्ठ और पवित्र है । इसीलिए उनकी मनोदशा ( दम में माशा और दम में तोला की - सी ) थी कि अभी भड़के और अभी ढीले पड़ गए । हज़रत उमर रजि० के इस्लाम लाने के बारे में मिलने वाली तमाम रिवायतों का सार यह है कि एक दिन उन्हें घर से बाहर रात बितानी - पड़ी । वह हरम तशरीफ़ लाए और खाना काबा के परदे में घुस गए । उस वक़्त मोहम्मद नमाज़ पढ़ रहे थे और सूरः अल - हाक्का की तिलावत फरमा रहे थे । हज़रत उमर कुरआन सुनने लगे और उसे सुनकर चकित रह गए । उनका बयान है कि मैंने अपने जी में कहा , खुदा की कसम ! यह तो कवि है , जैसा कि कुरैश कहते हैं । लेकिन इतने में आपने यह आयत तिलावत फ़रमाई ' यह एक बुजुर्ग रसूल का कौल है , यह किसी कवि की कविता नहीं है , तुम लोग कम ही ईमान लाते हो । ' हज़रत उमर रजि० कहते हैं , मैंने अपने जी में कहा , ओहो यह तो काहिन है , लेकिन आपने इतने में यह आयत तिलावत फरमाई ' यह किसी काहिन का क़ौल भी नहीं , तुम लोग कम ही नसीहत कुबूल करते हो । यह अल्लाह रब्बुल आलमीन की ओर से उतारा गया है । ' ( आखिर सूरः तक ) हज़रत उमर रजि० का बयान है कि उस वक़्त मेरे दिल में इस्लाम घुस गया । यह पहला मौका था कि हजरत उमर रजि० के दिल में इस्लाम का बीज पड़ा , लेकिन अभी उनके भीतर अज्ञानतापूर्ण विचार , पक्षपात और पुरखों के धर्म की महानता इतरी गहरी बैठी हुई थी कि वह आगे नहीं बढ़ने देती थी और उनका इस्लाम - विरोध चल रहा था । उनके स्वभाव की सख्ती और नबी सल्ल० के प्रति वैर - भाव का यह हाल था कि एक दिन खुद नबी सल्ल० का काम तमाम करने की नीयत से तलवार लेकर निकल पड़े , लेकिन अभी रास्ते ही में थे कि नुऐम बिन अब्दुल्लाह अन - नहाम अदवी से या बनी जोहरा या बनी मजूम ' के किसी आदमी से मुलाकात हो गई । उसने तैवर देखकर पूछा ' उमर ! कहां का इरादा है ? ' उन्होंने कहा , ' मुहम्मद को कत्ल करने जा रहा हूं । ' उसने कहा , ' मुहम्मद को कत्ल करके बनू हाशिम और बनू ज़ोहरा से कैसे बच सकोगे ? ' हज़रत उमर रजि० ने कहा , ' मालूम होता है तुम भी अपना पिछला धर्म छोड़कर विधर्मी हो चुके हो ? ' उसने कहा , उमर ! एक विचित्र बात न बता दूं ? तुम्हारी बहन और बहनोई भी तुम्हारा धर्म छोड़कर विधर्मी हो चुके हैं । यह सुनकर उमर गुस्से से बे - काबू हो गए और सीधे बहन - बहनोई का रुख किया । वहां उन्हें हज़रत खब्बाब बिन अरत्त सर : ताहा पर सम्मिलित एक किताब पढ़ा रहे थे और कुरआन पढ़ाने के लिए वहां आना - जाना हज़रत खब्बाब का रोज़ाना का काम था । जब हज़रत खब्बाब रजि० ने हज़रत उमर रजि० की आहट सुनी , तो घर के अन्दर छिप गए । उधर हज़रत उमर की बहन फ़ातिमा ने किताब छिपा दी , लेकिन हज़रत उमर घर के करीब पहुंच कर हज़रत खब्बाब की किरात सुन चुके थे , इसलिए पूछा कि यह कैसी धीमी - धीमी सी आवाज़ थी , जो तुम लोगों के पास मैंने सुनी थी ? उन्होंने कहा , कुछ भी नहीं , बस हम आपस में बातें कर रहे थे । हज़रत उमर ने कहा , शायद तुम दोनों विधर्मी हो चुके हो ? बहनोई ने कहा , अच्छा उमर ! यह बताओ , अगर हक़ तुम्हारे धर्म के बजाए किसी और धर्म में हो तो ? हज़रत उमर का इतना सुनना था कि अपने बहनोई पर चढ़ दौड़े और उन्हें बुरी तरह कुचल दिया । उनकी बहन ने लपक कर उन्हें अपने शौहर से अलग किया तो बहन को ऐसा चांटा मारा कि चेहरा खून से भर गया । इब्ने इस्हाक़ की रिवायत है कि उनके सर में चोट आई । बहन ने गुस्से में चीख कर कहा , उमर ! अगर तेरे दीन के बजाए दूसरा ही दीन हक़ पर हो तो ? मैं गवाही देती हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं और मैं गवाही देती हूं कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं । यह सुनकर हज़रत उमर के चेहरे पर निराशा छा गई और उन्हें अपनी बहन के चेहरे पर खून देखकर लज्जा भी आने लगी कहने लगे ' अच्छा , यह किताब जो तुम्हारे पास है , तनिक मुझे भी पढ़ने को दो । ' बहन ने कहा , तुम नापाक हो । इस किताब को सिर्फ पाक लोग ही छ सकते हैं । उठो , नहा लो । हज़रत उमर ने उठ कर स्नान किया , फिर किताब ली और बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम० पढ़ी और कहने लगे ' ये तो बड़े पवित्र नाम हैं । ' इसके बाद ताहा से ' इन्ननी अनल्लाह ला इला - ह इल्ला अना फअबुदनी व अकिमिस्सला - त लिज़िक्री० तक पढ़ा । कहने लगे ' यह तो बड़ा अच्छा और बड़ा सम्माननीय कलाम है । मुझे मुहम्मद का पता बताओ । ' हज़रत ख़ब्बाब रजि० ये वाक्य सुनकर बाहर आ गए । कहने लगे ' उमर ! खुश हो जाओ । मुझे उम्मीद है कि अल्लाह के रसूल मोहम्मदने वीरवार को तुम्हारे बारे में जो दुआ की थी ( कि ऐ अल्लाह ! उमर बिन खत्ताब या अबू जहल बिन हिशाम के ज़रिए इस्लाम को शक्ति पहुंचा ) यह वही है और उस वक़्त अल्लाह के रसूल सल्ल० सफा पहाड़ी के पास वाले मकान में तशरीफ़ रखते हैं । ' ' यह सुनकर हज़रत उमर रजि० ने अपनी तलवार खींच ली और उस घर के पास आकर दरवाजे पर दस्तक दी । एक आदमी ने उठकर दरवाजे की दराड़ से झांका तो देखा कि उमर तलवार नंगी किए मौजूद हैं । लपक कर अल्लाह के रसूल मोहम्मद को खबर दी और सारे लोग सिमट कर इकट्ठा हो गए । हज़रत हमज़ा रजि० ने पूछा , क्या बात है ? लोगों ने कहा , उमर हैं । हज़रत हमजा रजि० ने कहा , बस , उमर हैं , दरवाज़ा खोल दो । अगर वह भली नीयत से आया है , तो उसे हम भलाई देंगे और अगर कोई बुरा इरादा लेकर आया है , तो हम उसी की तलवार से उसका काम तमाम कर देंगे । उधर अल्लाह के रसूल मोहम्मदअन्दर तशरीफ़ रखते थे , आप पर वा नाजिल हो रही थी । वा नाज़िल हो चुकी तो हज़रत उमर के पास तशरीफ़ लाए । बैठक में उनसे मुलाक़ात हुई । आपने उनके कपड़े और तलवार का परतला समेट कर पकड़ा और सख्ती से झटकते हुए फरमाया , उमर ! क्या तुम उस वक़्त तक बाज़ नहीं आओगे , जब तक कि अल्लाह तुम पर वैसी ही ज़िल्लत और रुसवाई और शिक्षाप्रद सज़ा न उतार दे , जैसी वलीद बिन मुग़ीरह रजि० पर नाज़िल हो चुकी है । ऐ अल्लाह ! यह उमर बिन खत्ताब है । ऐ अल्लाह ! इस्लाम को उमर बिन खत्तब के ज़रिए ताक़त और इज़्ज़त अता फरमा । आपके इस इर्शाद के बाद हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम स्वीकार करते हुए कहा ' मैं गवाही देता हूं कि यक़ीनन अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक - नहीं और यकीनी तौर पर आप अल्लाह के रसूल हैं । ' यह सुनकर घर के भीतर मौजूद सहाबा रजि० ने इस ज़ोर से तक्बीर कही कि मस्जिदे हराम वालों को सुनाई पड़ी । मालूम है कि हज़रत उमर रजि० की ताक़त और दबदबे का हाल यह था कि कोई उनसे मुकाबले की हिम्मत न करता था , इसलिए उनके मुसलमान हो जाने से मुश्किों में कुहराम मच गया और उन्हें बड़ी ज़िल्लत व रुसवाई महसूस हुई । दूसरी ओर इनके इस्लाम लाने से मुसलमानों को बड़ी इज्जत , ताक़त , पद - प्रतिष्ठा , और हर्ष - प्रसन्नता हुई । इसलिए इने इस्हाक़ ने अपनी सनद से हज़रत ' उमर रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान नक़ल किया है कि जब मैं मुसलमान हुआ तो मैंने सोचा कि मक्के का कौन आदमी अल्लाह के मोहम्मद का सबसे बड़ा और सबसे सख्त दुश्मन है ? फिर मैंने जी ही जी में कहा , यह अबू जहल है । इसके बाद मैंने उसके घर जाकर उसका दरवाजा खटखटाया । वह बाहर आया , देखकर बोला ' स्वागत है , स्वागत है , कैसे आना हुआ ? ' मैंने कहा , ' तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद मोहम्मद पर ईमान ला चुका हूं और जो कुछ वह लाए हैं , उसकी तस्दीक कर चुका हूं । ' हज़रत उमर रजि० का बयान है कि ( यह सुनते ही ) उसने मेरे सामने से रवाज़ा बन्द कर लिया और बोला ' अल्लाह तेरा बुरा करे और जो कुछ तू लेकर आया है , उसका भी बुरा करे । इमाम इने जौजी ने हज़रत उमर रजि० से यह रिवायत नक़ल की है कि जब कोई व्यक्ति मुसलमान हो जाता तो लोग उसके पीछे पड़ जाते , उसे मारते - पीटते और वह भी उन्हें मारता , इसलिए जब मैं मुसलमान हुआ तो अपने मामूं आसी बिन हाशिम के पास गया और उसे खबर दी । वह घर के अन्दर घुस गया , फिर कुरैश के एक बड़े आदमी के पास गया , ( शायद अबू जहल की ओर इशारा है ) और उसे खबर दी , वह भी घर के अन्दर घुस गया । इने हिशाम और इब्ने जौज़ी का बयान है कि जब हज़रत उमर रजि० मुसलमान हुए तो जमील बिन मोमर जमही के पास गए । यह व्यक्ति किसी बात का ढोल पीटने में पूरे कुरैश में सबसे ज़्यादा मशहूर था । हज़रत उमर रजि० ने उसे बताया कि वह मुसलमान हो गए हैं । उसने सुनते ही बड़ी ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर कहा कि खत्ताब का बेटा बेदीन ( विधी ) हो गया है । हज़रत उमर रजि० उसके पीछे ही थे , बोले ' यह झूठ कहता है । मैं मुसलमान हो गया हूं । ' बहरहाल लोग हज़रत उमर रजि० पर टूट पड़े और मार - पीट शुरू हो गई । लोग हज़रत उमर रजि० को मार रहे थे और हज़रत उमर रजि० लोगों को मार रहे थे , यहां तक कि सूरज सर पर आ गया और हज़रत उमर थक कर बैठ गये । लोग सर पर सवार थे । हज़रत उमर रजि० ने कहा ' जो बन पड़े , कर लो । खुदा की क़सम ! अगर हम लोग तीन सौ की तायदाद में होते तो फिर मक्के में या तो तुम ही रहते या हम ही रहते । इसके बाद मुश्किों ने इस इरादे से हज़रत उमर रजि० के घर पर हल्ला बोल दिया कि उन्हें जान से मार डालें । इसलिए सहीह बुखारी में हज़रत इब्ने उमर रजि० से रिवायत है कि हज़रत उमर रजि० खौफ़ की हालत में घर के भीतर थे कि इस बीच अबू अम्र आस बिन वाइल सहमी आ गया । वह धारीदार यमनी चादर का जोड़ा और रेशमी गोटे से सजा हुआ कुरता पहने हुए था । उसका ताल्लुक़ क़बीला सम से था और यह क़बीला अज्ञानता - युग में हमारा मित्र था । उसने पूछा , क्या बात है ? हज़रत उमर रजि० ने कहा , मैं मुसलमान हो गया हूं । इसलिए आपकी कौम मुझे क़त्ल करना चाहती है । आस ने कहा , यह संभव नहीं । आस की बात सुनकर मुझे सन्तोष हो गया । इसके बाद आस वहां से निकला और लोगों से मिला । उस वक़्त स्थिति यह थी कि घाटी में भीड़ की भीड़ जमा हो रही थी । आस ने उनसे पूछा , ' क्या इरादा है ? क्यों जमा हो रहे है ? कहां जाना चाहते हैं ? ' लोगों ने बताया , यही ख़त्ताब के बेटे ( उमर ) की खोज है । वह बे - दीन हो गया है न ! आस ने कहा , वहां जाने की कोई जरूरत नहीं । यह सुनते ही लोग वापस अपने घरों को पलट गये । इब्ने इस्हाक़ की एक रिवायत में है कि अल्लाह की कसम , ऐसा लगता था , मानो वे लोग एक कपड़ा थे , जिसे उसके ऊपर से झटक कर फेंक दिया गया । हज़रत उमर रजि० के इस्लाम लाने पर यह हालत तो मुश्किों की हुई थी , बाकी रहे मुसलमान तो उनके हालात का अन्दाज़ा इससे हो सकता है कि मुजाहिद ने इब्ने अब्बास रजि० से रिवायत किया है कि मैंने हज़रत उमर बिन खत्ताब रजि० से मालूम किया कि किस वजह से आपकी उपाधि ' फारूक़ ' हुई ? तो उन्होंने कहा ' मुझसे तीन दिन पहले हज़रत हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु मुसलमान हुए । ' फिर हज़रत उमर रजि० ने उनके इस्लाम लाने की घटना बता कर अन्त में कहा कि फिर जब मैं मुसलमान हुआ , तो मैंने कहा , ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० ! क्या हम हक़ ( सत्य ) पर नहीं हैं , भले ही जिंदा रहें या मरें ? आपने फरमाया , क्यों नहीं । उस ज़ात की कसम , जिसके हाथ में मेरी जान है , तुम लोग हक़ पर हो , चाहे जिंदा रहो , चाहे मौत के शिकार हो जाओ । हज़रत उमर रजि० कहते हैं कि तब मैंने कहा कि फिर छिपना कैसा ? उस जात की कसम , जिसने हक़ के साथ आपको भेजा है , हम ज़रूर बाहर निकलेंगे । इसलिए हम दो लाइनों में आपको साथ लेकर बाहर आए । एक लाइन में हमजा थे और एक में मैं था । हमारे चलने से चक्की के आटे की तरह हल्की - हल्की धूल उड़ रही थी , यहां तक कि हम मस्जिदे हराम में दाखिल हो गए । हज़रत उमर रजि० का बयान है कि कुरैश ने मुझे और हमज़ा को देखा तो उनके दिलों पर ऐसी चोट लगी कि अब तक न लगी थी । उसी दिन अल्लाह के रसूल सल्ल० ने मेरी उपाधि ' फ़ारूक़ ' रख दिया । हजरत इब्ने मसऊद रजि० का इर्शाद है कि हम खाना काबा के पास नमाज़ पढ़ने की ताक़त न रखते थे , यहां तक कि हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम अपना लिया । हज़रत सुहैब बिन सिनान रूमी रज़ियल्लाह अन्ह का बयान है कि हजरत उमर रजि० मुसलमान हुए तो इस्लाम परदे से बाहर आया , उसकी खुल्लम खुल्ला दावत दी गई । हम घेरा बना कर बैतुल्लाह के चारों ओर बैठे , बैतुल्लाह का तवाफ़ किया और जिसने हम पर सख्ती की , उससे बदला लिया और उसके कुछ अत्याचारों का जवाब दिया । हज़रत इले मसऊद रज़ियल्लाहु अन्ह का बयान है कि जब से हज़रत उमर रजि० ने इस्लाम अपनाया , तब से हम बराबर ताकतवर और इज्जतदार रहे । 

मोहम्मदके क़त्ल की कोशिश

जब मुश्रिक अपनी चाल में सफल न हो सके और हब्शा के मुहाजिरों को वापस लाने में मुंह की खानी पड़ी तो आपा खो बैठे और लगता था कि मारे गुस्से के फट पड़ेंगे , चुनांचे उनकी दरिन्दगी ( पश्विकता ) और बढ़ गई उनका हाथ अल्लाह के रसूल मोहम्मदतक बढ़ने लगा और उनकी . गतिविधियों से यह महसूस होने लगा कि वह आपका अन्त करना चाहते हैं , ताकि उनके विचार से जिस फ़िले ने उनकी नींद हराम कर रखी है , उसे जड़ से उखाड़ फेंका जाए । जहां तक मुसलमानों का ताल्लुक़ है तो अब मक्का में जो मुसलमान बचे - खुचे रह गए थे , वह बहुत ही थोड़े थे और फिर प्रतिष्ठित लोग थे , या किसी बड़े आदमी की पनाह में थे । इसके साथ ही वे अपने इस्लाम को छिपाए हुए भी थे और यथासंभव सरकशों और ज़ालिमों की निगाहों से दूर रहते थे , लेकिन इस सावधानी और बचाव के बावजूद वे जुल्म व जौर और पीड़ा के शिकार बनने से पूरी तरह न बच सके । जहां तक अल्लाह के रसूल मोहम्मदका ताल्लुक है तो आप ज़ालिमों की निगाहों के सामने नमाज़ पढ़ते और अल्लाह की इबादत करते थे और खुफ़िया और खुल्लम खुल्ला दोनों तरह अल्लाह के दीन की दावत देते थे । इससे आपको न कोई रोकने वाली चीज़ रोक सकती थी और न मोड़ने वाली । चीज़ मोड़ सकती थी , क्योंकि यह अल्लाह की रिसालत के प्रचार का एक हिस्सा था और इस पर आप उस वक़्त से अमल कर रहे थे जब से अल्लाह का यह हक्म आया था , ' आपको जो हुक्म दिया जाता है , उसे खुल्लम खुल्ला कीजिए । और मुश्किों से मुंह फेरे रखिए । ' इसलिए ऐसी स्थिति में मुश्किों के लिए संभव था कि आपसे जब चाहें छेड़ - छाड़ कर बैठे । प्रत्यक्ष में कोई चीज़ न थी जो उनके और उनके इरादों के दर्मियान रोक बन सकती । अगर कुछ था तो वह मोहम्मदका अपना निजी रौब व दबदबा था या अबू तालिब का जिम्मा व एहतराम था या इस बात का डर था कि अगर उन्होंने कोई ग़लत हरकत की तो अंजाम अच्छा न होगा और सारे बनू हाशिम उनके खिलाफ डट जाएंगे । मगर उनके दिलों में इन सारी बातों का जैसा असर होना चाहिए था , वह असर बाकी न रह गया था और जब से उन्हें यह महसूस हो चला था कि आपकी दावत के सामने उनकी दीनी चौधराहट और मूर्ति पूजा - व्यवस्था टूट - फूट का शिकार हुआ चाहती है , तब से उन्होंने आपसे ओछी हरकतें करने शुरू कर दी थीं । इस संबंध में जो घटनाएं हदीस व सीरत की किताबों में रिवायत की गई हैं और जिनकी गवाही हालात भी देते हैं , वे इसी दौर में घटीं । उनके एक दो नमूने ये हैं कि एक दिन अबू लव का बेटा उतैबा अल्लाह के रसूल मोहम्मदके पास आया और बोला ' मैं ' वन्नज्मि इजा हवा ' और ' सुम - म दना फ़ - त - दल्ला ' के साथ कुफ करता इसके बाद वह आपको पीड़ा पहुंचाने पर उतर आया । आपका करता फाड़ दिया और आपके चेहरे पर थूक दिया । अगरचे थूक आप पर न पड़ा । इसी मौके पर मोहम्मदने बद - दुआ की कि ऐ । अल्लाह ! इस पर अपने कुत्तों में से कोई कुत्ता मुसल्लत कर दे । मोहम्मदकी यह बद - दुआ कुबूल हुई । चुनांचे एक बार उतैबा कुरैश के कुछ लोगों के साथ सफर में गया । जब उन्होंने शाम देश के नगर जरका में पडाव डाला . तो रात के वक़्त शेर ने उनका चक्कर लगाया । उतैबा ने देखते ही कहा , ' हाय ! मेरी तबाही ! यह अल्लाह की क़सम ! मुझे खा जाएगा , जैसा कि मुहम्मद मोहम्मदने मुझे बद - दुआ दी है । देखो , मैं शाम देश में हं , लेकिन उसने मक्का में रहते हुए मुझे मार डाला । सावधानी और रक्षा की दृष्टि से लोगों ने उतैबा को अपने और जानवरों के को के हो देव सुलाया लेकिन खत को शेर सबको मंदता हुआ सोचा उसेवा के पास पहुंचा और पकड़ कर जिन्द कर डाला । एक बार उडवा बिन अबी मरेड ने अल्लाह के रसूल मोहम्मदकी गरदन सब्दे की हालत में इस जोर से सटी कि मालूम होता र दोनों आंखें निकल आएंगी । इब्ने इस्हाक को एक लम्बी रिवायत से भी कुरैश के दुष्टों के इस इरादे पर रोशनी पड़ती है कि वे नबी सल्ल . के खात्मे के चक्कर में दे चुनांचे इस रिवायत में बवान किया गया है कि एक बार अबू बहल ने कहा कुरैशी भाइयो ! आप देखते हैं कि मुहम्मद हमारे धर्म में दोष निकालने हमारे पुरखों को बुरा - भला कहने हमारी सूझ - बूझ को घटाने और हमारे उपास्यों का अपमान करने से रुकते नहीं , इसलिए मैं अल्लाह से प्रवा कर रहा हूँ कि एक बहुत भारी और मुश्किल से उठने वाला पत्थर लेकर बैठगा और जब वह सज्दा करेगा तो उसी पत्थर से उसका सर कुचल दूंगा । अब इसके बाद चाहे तुम लोग मुझको असहाय छोड़ दो , चाहे मेरी रक्षा को और बम् अब्द मुनाफ भी इसके बाद जो चाहें मे । लोगों ने कहा नहीं बुदा की कसम ! हम तुम्हें कभी किसी मामले में असहाय नहीं छोड़ सकते । तुम जो करना चाहते हो कर गुजरो । ' सुबह हुई तो अबू बहल वैसा ही एक पत्थर लेकर अल्लाह के रसूत मोहम्मदके इन्तजार में बैठ गया । अल्लाह के रसूल मोहम्मदपहले ही की तरह तशरीफ लाये और खड़े होकर नमाज पढ़ने लगे । कुरैश भी अपनी - अपनी मज्लिसों ( बैठकों की जगहों ) में आ चुके थे और अबू जहल की कार्रवाई देखने के इन्तिजार में थे । जब अल्लाह के रसूल मोहम्मदसद्दे में तशरीफ ले गए तो अब बहल ने पत्थर उठाया , फिर आपकी ओर बढ़ा लेकिन जब करीब पहुंचा तो पराजित व्यक्ति की तरह वापस भागा । उसका रंग उड़ रहा था और वह इतमा रौब खा गया था कि उसके दोनों हब पत्थर पर चिपककर रह गए थे । वह बड़ी मुश्किल से हाथ से पत्थर अलग कर सका । जहां सब कुरैश के दूसरे गुंडों का ताल्लुक है तो उनके दिलों में भी बीसल्लल्लाह अलैहि व सल्लम के खात्मे का ख्याल बराबर पक रहा था । इसलिए हजरत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रजि० से इब्ने इस्हाक़ ने उनका यह बयान नक़ल किया है कि एक बार मुश्रिक हतीम में जमा थे । मैं भी मौजूद था । मुश्किों ने अल्लाह के रसूल सल्ल० का ज़िक्र छेड़ा और कहने लगे ' इस व्यक्ति के मामले में हमने जैसा सब किया है , उसकी मिसाल नहीं । सच तो यह है कि हमने इसके मामले में बहुत ही बड़ी बात पर सब किया है । ' यह बातचीत चल ही रही थी कि अल्लाह के रसूल मोहम्मदसामने आ गए । आपने आते ही पहले हजरे अस्वद को चूमा , फिर तवाफ़ करते हुए मुश्किों के पास से गुज़रे । उन्होंने कुछ कहकर लान - तान किया , जिसका प्रभाव मैने आपके चेहरे पर देखा । इसके बाद आप तीसरी बार गुज़रे , तो मुश्किों ने फिर आप पर लान - तान की । अब की बार आप ठहर गए और फरमाया ' कुरैश के लोगो ! सुन रहे हो ? उस जात की कसम , जिसके हाथ में मेरी जान है , मैं तुम्हारे पास ज़िम्ह लेकर आया हूं । ' आपके इस इर्शाद ने लोगों को पकड़ लिया । ( वे ऐसा चुप हुए कि ) मानो हर व्यक्ति के सर पर चिड़िया है . यहां तक कि जो आप पर सबसे ज्यादा सख्त था , वह भी बेहतर से बेहतर शब्द जो पा सकता था , उसके द्वारा आपसे रहमत तलब करने लगा , कहता ' अबुल क़ासिम ! वापस जाइए । खुदा की क़सम ! आप कभी नादान न थे । दूसरे दिन कुरैश फिर इसी तरह जमा होकर आपका ज़िक्र कर रहे थे कि आप सामने आ गए । देखते ही सब इकट्ठा होकर एक आदमी की तरह आप पर पिल पड़े और आपको घेर लिया । फिर मैंने एक आदमी को देखा कि उसने गले के पास से आपकी चादर पकड़ ली । ( और बल देने लगा ) अबूबक्र रजि० आपके बचाव में लग गए । वह रोते जाते थे और कहते जाते थे ' क्या तुम लोग एक व्यक्ति को इसलिए क़त्ल कर रहे हो कि वह कहता है , मेरा रब अल्लाह है ? ' इसके बाद वे लोग आपको छोड़कर पलट गये । अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रजि० कहते हैं कि यह सबसे बड़ी पीड़ा पहुंचाने वाली बात थी , जो मैंने कुरैश को कभी करते हुए देखी । ( संक्षिप्त करके लिखा गया ) सहीह बुखारी में हज़रत उर्वः बिन जुबैर रजि० से उनका बयान रिवायत । किया गया है कि मैंने अब्दुल्लाह बिन अन बिन आस रजि० से सवाल किया कि मुशिकों ने मोहम्मदके साथ जो सबसे बुरी बद - सुलूकी की थी , आप मुझे उसे विस्तार में बताइए । उन्होंने कहा कि नबी सल्ल० खाना काबा के करीब हतीम में नमाज़ पढ़ रहे थे कि उनबा बिन अबी मऐत आ गया । उसने आते ही अपना कपड़ा आपकी गरदन में डाल कर बड़ी सख्ती के साथ आपका गला घोंटा । इतने में अबूबक्र आ पहुंचे और उन्होंने उसके दोनों कंधे पकड़ कर धक्का दिया और उसे नबी सल्ल० से दूर करते हुए फरमाया , ' क्या तुम लोग एक आदमी को इसलिए क़त्ल कर रहे हो कि वह कहता है , मेरा रब अल्लाह है । " हज़रत अस्मा रजि० की रिवायत में कुछ और विस्तार है कि हज़रत अबूबक्र रजि० के पास यह चीख पहुंची कि अपने साथी को बचाओ । वह झट हमारे पास से निकले । उनके सर पर चार चोटियां थीं । वह यह कहते हुए गए कि ' क्या तुम लोग एक व्यक्ति को केवल इसलिए क़त्ल कर रहे हो कि वह कहता है मेरा रब अल्लाह है । ' मुश्कि नबी सल्ल० को छोड़कर अबूबक्र रजि० पर पिल पड़े । वह वापस आए तो हालत यह थी कि हम उनकी चोटियों का जो बाल भी छूते थे , वह हमारी ( चुटकी ) के साथ आता था । 

हब्शा की दूसरी हिजरत

इसके बाद उन मुहाजिरों पर खास तौर पर और मुसलमानों पर आम तौर पर कुरैश का अन्याय और अत्याचार और बढ़ गया और उनके परिवार वालों ने उन्हें खूब सताया , क्योंकि कुरैश को उनके साथ नजाशी के सद्व्यवहार की जो खबर मिली थी , उस पर वे बहत रुष्ट थे । मजबूर होकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने सहाबा किराम रजि० को फिर हब्शा की हिजरत का मश्विरा दिया , लेकिन यह दूसरी हिजरत पहली हिजरत के मुकाबले में ज़्यादा परेशानियों और कठिनाइयों से भरी हुई थी , क्योंकि इस बार कुरैश पहले ही से चौकन्ना थे और ऐसी किसी कोशिश को विफल करने का संकल्प किए हुए थे , लेकिन मुसलमान उनसे कहीं ज्यादा मस्तैद साबित हुए और अल्लाह ने उनके लिए सफ़र आसान बना दिया , चुनांचे वे कुरैश की पकड़ में आने से पहले ही हब्श के बादशाह के पास पहुंच गए । इस बार कुल 82 या 83 मर्दो ने हिजरत की । ( हज़रत अम्मार की हिजरत में मतभेद है ) और अठारह या उन्नीस औरतों ने । अल्लामा मंसरपरी ने पूरे विश्वास के साथ औरतों की तायदाद अठारह लिखी है । ' हब्शा के मुहाजिरों के विरुद्ध कुरैश का षड्यंत्र मुश्किों को बड़ा दुख था कि मुसलमान अपनी जान और अपना दीन बचाकर एक शांतिपूर्ण जगह पहुंच गए हैं , इसलिए उन्होंने अम्र बिन आस और अब्दुल्लाह बिन रबीआ को , जो गहरी सूझ - बूझ के मालिक थे और अभी मुसलमान नहीं हुए थे , दूत बनाकर एक अहम मुहिम पर भेजने को सोचा और इन दोनों को नजाशी और बितरीकों ( दरबारियों ) की सेवा में भेंट और उपहार देने के लिए हब्शा रवाना किया । इन दोनों ने पहले हब्शा पहंचकर बितरीकों को उपहार दिए , फिर उन्हें अपनी वे दलीलें बताई , जिनको आधार बनाकर वे मुसलमानों को हब्शा से निकलवाना चाहते थे । जब बितरीकों ने इसे मान लिया कि वे नजाशी दूरी पर रह गया तो सही स्थिति मालूम हुई । इसके बाद कुछ लोग तो सीधे हब्शा पलट गये और कुछ लोग छिप - छिपाकर या कुरैश के किसी आदमी की शरण लेकर मक्के में दाखिल हुए । हब्शा की दूसरी हिजरत इसके बाद उन मुहाजिरों पर खास तौर पर और मुसलमानों पर आम तौर पर कुरैश का अन्याय और अत्याचार और बढ़ गया और उनके परिवार वालों ने उन्हें खूब सताया , क्योंकि कुरैश को उनके साथ नजाशी के सद्व्यवहार की जो खबर मिली थी , उस पर वे बहत रुष्ट थे । मजबूर होकर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने सहाबा किराम रजि० को फिर हब्शा की हिजरत का मश्विरा दिया , लेकिन यह दूसरी हिजरत पहली हिजरत के मुकाबले में ज़्यादा परेशानियों और कठिनाइयों से भरी हुई थी , क्योंकि इस बार कुरैश पहले ही से चौकन्ना थे और ऐसी किसी कोशिश को विफल करने का संकल्प किए हुए थे , लेकिन मुसलमान उनसे कहीं ज्यादा मस्तैद साबित हुए और अल्लाह ने उनके लिए सफ़र आसान बना दिया , चुनांचे वे कुरैश की पकड़ में आने से पहले ही हब्श के बादशाह के पास पहुंच गए । इस बार कुल 82 या 83 मर्दो ने हिजरत की । ( हज़रत अम्मार की हिजरत में मतभेद है ) और अठारह या उन्नीस औरतों ने । अल्लामा मंसरपरी ने पूरे विश्वास के साथ औरतों की तायदाद अठारह लिखी है ।