तमाम घटनाओं पर भरपूर निगाह डालकर हज़रत जिबील अलैहिस्सलाम के आने की इस घटना की तारीख निश्चित की जा सकती है । हमारी खोज के अनुसार यह घटना रमजान की 21 तारीख को सोमवार की रात में हुई । उस दिन अगस्त की 10 तारीख थी और 610 ईस्वी थी । चांद के हिसाब से मोहम्मद की उम्र चालीस वर्ष छ : महीने बारह दिन और ईसवी हिसाब से 39 साल तीन महीने 22 दिन थी ।
आ आइए अब तनिक हज़रत आइशा रजि० की जुबानी इस घटना का विवरण मने जो नबवत का आरंभ - बिन्दु था और जिससे कुफ्र और गुमराहियों की अंधियारियां छटती चली गईं , यहां तक कि जिंदगी की रफ्तार बदल गई और इतिहास का रुख पलट गया । हज़रत आइशा रजि० फ़रमाती हैं , मोहम्मद पर आयत की शुरूआत नींद में अच्छे सपने से हई । आप जो भी सपने देखते थे , वह सुबह के उजाले की तरह स्पष्ट होता था ।
फिर आपको अकेलापन अच्छा लगने लगा , इसलिए आप हिरा की गुफा में एकान्त वास करने लगे और कई - कई रात घर वापस आए बिना इबादत में लगे रहते । इसलिए आप खाने - पीने का सामान ले जाते . फिर ( सामान खत्म होने पर ) हज़रत ख़दीजा के पास वापस आते और लगभग उतने ही दिनों के लिए फिर सामान ले जाते , यहां तक कि आपके पास हक़ आया और आप हिरा की गुफा में थे , अर्थात आपके पास फ़रिश्ता आया और उसने कहा , पढ़ो । आपने फ़रमाया , मैं पढ़ा हुआ नहीं हूं । उसने दोबारा पकड़कर दबोचा , फिर छोड़कर कहा , पढ़ो । मैंने फिर कहा , मैं पढ़ा हुआ नहीं हूं । उसने तीसरी बार पकड़कर दबोचा , फिर छोड़कर कहा
' पढ़ो अपने रब के नाम से जिसने पैदा किया , इंसान को लोथड़े से पैदा किया , पढ़ो और तुम्हारा रब बड़ा ही करीम है । "
इन आयतों के साथ मोहम्मद पलटे । आप का दिल धक - धक कर रहा था । हज़रत ख़दीजा बिन्त खुवैलद के पास तशरीफ़ लाए और फ़रमाया , मुझे चादर ओढ़ा दो , मुझे चादर ओढ़ा दो । उन्होंने आपको चादर ओढ़ा दी , यहां तक कि डर जाता रहा ।
इसके बाद आपने हज़रत ख़दीजा रजि० को घटना की सूचना देते हुए फ़रमाया , यह मुझे क्या हो गया है ? मुझे तो अपनी जान का डर लगता है । हज़रत ख़दीजा रजि० ने कहा , कतई तौर पर नहीं , खुदा की कसम ! आपको अल्लाह रुसवा न करेगा । आप नातेदारों से रिश्ते जोड़ते हैं । बेसहारों का सहारा बनते हैं , जरूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करते हैं , मेहमानों का सत्कार करते हैं और परेशानियों में काम आते हैं ।
इसके बाद हज़रत ख़दीजा रजि० आपको अपने चचेरे भाई वरका बिन नौफुल बिन असद बिन अब्दुल उज़्ज़ा के पास ले गईं । वरका अज्ञानता - युग में ईसाई हो गये थे और इबरानी में लिखना जानते थे । इसलिए इबरानी भाषा में खुदा की तौफ़ीक़ के मुताबिक़ इंजील लिखते थे । उस वक़्त बहुत बूढ़े और अंधे हो चुके थे । उनसे हज़रत ख़दीजा रजि० ने कहा , भाई जान ! आप अपने भतीजे की बात सुनें । वरका ने कहा , भतीजे ! तुम क्या देखते हो ? मोहम्मद ने जो कुछ देखा , बयान फरमा दिया ।
इस पर वरका ने आपसे कहा , यह तो वही नामूस ( पवित्रात्मा ) है , जिसे अल्लाह ने मूसा पर उतारा था । काश , उस वक़्त मैं ताक़तवर होता , काश , मैं उस वक़्त ज़िंदा होता , जब आपकी क़ौम आपको निकाल देगी ।
मोहम्मद ने फरमाया , अच्छा , तो क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे ? वरक़ा ने कहा , हां , जब भी कोई आदमी इस तरह का पैग़ाम लाया , जैसा तुम लाए हो , तो उससे ज़रूर दुश्मनी की गई , और अगर मैंने तुम्हारा समय पा लिया , तो तुम्हारी ज़बरदस्त मदद करूंगा । इसके बाद वरक़ा का जल्द ही देहान्त हो गया और आयत रुक गयी ।
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