इसके नतीजे में दोनों फरीको के दर्मियान संघर्ष हो सकता था । इसलिए इब्ने इस्हाक़ का बयान है कि , मोहम्मद के सहाबा किराम घाटियों में इकट्ठा होकर नमाज़ पढ़ा करते थे । एक बार कुरैश के कुछ दुश्मनों ने देख लिया तो गाली - गलोच और लड़ाई - झगड़े पर उतर आए । जवाब में हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रजि० ने एक व्यक्ति को ऐसी चोट लगाई कि उसका खून बह पड़ा और यह पहला खून था जो इस्लाम में बहाया गया । मालम है अगर इस तरह का टकराव बार - बार होता और लम्बा खिंच जाता . तो मुसलमानों के खात्मे की नौबत आ सकती थी , इसलिए हिक्मत का तकाज़ा यही था कि काम परदे के पीछे किया जाए , इसलिए आम सहाबा किराम रजि० अपना सलाम , अपनी इबादत , अपनी तब्लीग़ और अपने लोगों के मीटिंगें सब कछ छिप - छिपाकर करते थे , अलबत्ता मोहम्मद तब्लीग़ का काम भी मुश्रिकों के सामने खुल्लम - खुल्ला अंजाम देते थे और इबादत का काम भी । कोई चीज़ आपको इससे रोक नहीं सकती थी , फिर भी आप मुसलमानों के साथ खुद उनकी मस्लहत देखते हुए खुफिया तौर पर जमा होते थे ।
इधर अरकम बिन अबी अरक़म मख्तमी का मकान सफा पहाड़ी पर दुश्मनों और विरोधियों की निगाहों और उनकी मजिल्सों से दूर अलग - थलग वाले था , इसलिए आपने पांचवीं सन् नुबूवत में उसी मकान को अपनी दावत और मुसलमानों के साथ अपने जमा होने का सेन्टर बना लिया । हत्शा की पहली हिजरत अत्याचार और दमन का उल्लिखित चक्र नुबूवत के चौथे साल के दर्मियान या आखिर में शुरू हुआ था और शुरू में मामूली था , पर दिन ब दिन और माह ब माह बढ़ता गया .
यहां तक कि नबवत के पांचवें साल का बीच आते - आते अपनी चरम सीमा को पहुंच गया , यहां तक कि मुसलमानों के लिए मक्का में रहना दूभर हो गया और उन्हें इन बराबर किये जा रह जुल्म व सितम समुक्ति पाने के उपाय सोचने पर मजबूर होना पड़ा । इन्हीं संगीन और अंधेरे की हालत में सूरः जुमर उतरा और उसमें हिजरत की ओर इशारा किया और बताया गया कि अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है ' जिन लोगों ने इस दुनिया में अच्छाई की , उनके लिए अच्छाई है और अल्लाह की ज़मीन विशाल है ।
सब करने वालों को उनका बदला बेहिसाब दिया जाएगा । ' ( 39 : 10 ) इधर मोहम्मद को मालूम था कि असहमा नजाशी हब्शा का एक न्यायप्रिय बादशाह है । वहां किसी पर जुल्म नहीं होता । इसलिए आपने मुसलमानों को हुक्म दिया कि वे फ़िलों से अपने दीन की रक्षा के लिए हब्शा हिजरत कर जाएं ।
इसके बाद एक तैशुदा प्रोग्राम के मताबिक़ रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम रजि० के पहले गिरोह ने हब्शा की ओर हिजरत की । इस गिरोह में 12 मर्द और चार औरतें थी । हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान रजि० उनके अमीर ( सरदार ) थे और उनके साथ मोहम्मद की साहबजादी ( सपत्री ) हज़रत रुकैया भी थीं ।
मोहम्मद ने उनके बारे में फ़रमाया कि हज़रत इब्राहीम और हज़रत लूत अलै० के बाद यह पहला घराना है , जिसने अल्लाह की राह में हिजरत की । ये लोग रात के अंधेरे में चुपके से निकलकर अपनी नई मंजिल की ओर रवाना हुए । रहस्य में रखने से अभिप्राय यह था कि कुरैश को इसका ज्ञान न हो सके । जाना लाल सागर की बन्दरगाह शुऐबा की ओर था । सौभाग्य कि वहां दो व्यापारिक नावें मौजूद थीं , जो उन्हें अपनी शरण में लेकर समुद्र पार हब्शा चली गई । कुरैश को बाद में उनके जाने का पता चला , फिर भी उन्होंने पीछा किया और तट पर पहुंचे , लेकिन सहाबा किराम आगे जा चुके थे , इसलिए विफल वापस आ गए ।
इधर मुसलमानों ने हब्शा पहुंचकर बड़े चैन की सांस ली ' , मुसलमानों के साथ मुश्रिकों का सज्दा और मुहाजिरों की वापसी लेकिन उसी वर्ष रमज़ान शरीफ़ में यह घटना घटी कि मोहम्मद एक बार हरम तशरीफ ले गए । वहां कुरैश की बहुत बड़ी भीड़ थी । उनके सरदार और बड़े - बड़े लोग जमा थे । आपने एकदम अचानक खड़े होकर सूरः नज्म पढ़ना शुरू कर दिया । इन दुश्मनों ने इससे पहले आम तौर से कुरआन सुना न था , क्योंकि कुरआन के सिलसिले में उनकी स्थाई नीति यह थी कि
' इस कुरआन को मत सुनो और इसमें बाधा डालो , ( ऊधम मचाओ ) ताकि तुम छा जाओ । ' ( 41 : 26 ) लेकिन जब मोहम्मद ने अचानक इस सूर : की तिलावत शुरू कर दी और उनके कानों में एक अकथनीय और महानता लिए हुए कलामे इलाही की आवाज़ पडी , तो उन्हें कुछ होश न रहा । सब के सब तल्लीन होकर सुनने लगे , किसी के दिल में और कोई विचार ही न आया , यहां तक कि जब आपने सूर के अन्त में दिल हिला देने वाली आयतें पढ़कर अल्लाह का यह हुक्म सुनाया कि ' अल्लाह के लिए सज्दा करो और उसकी इबादत करो । ' ( 53 : 62 ) और उसके साथ ही सज्दा फरमाया तो किसी को अपने आप पर काबू न रहा और सब के सब सज्दे में गिर पड़े । सच तो यह है कि इस मौके पर सत्य की महत्ता व महानता ने घमंडी और उपहास करने वाले विरोधियों की हठधर्मी का परदा चाक कर दिया था , इसलिए उन्हें अपने आप पर काबू न रह गया था और वे बे - अख्तियार सज्दे में गिर पड़े थे ।
लेकिन बाद में जब उन्हें एहसास हुआ कि कलामे इलाही की महानता ने उनकी लगाम मोड़ दी और वे ठीक वही काम कर बैठे , जिसे मिटाने और खत्म करने के लिए उन्होंने एड़ी से चोटी तक का जोर लगा रखा था और इसके साथ ही इस घटना के समय गैर - मौजूद मुशरिकों ने उन पर हर ओर से लानत - मलामत की बौछार शुरू की , तो उनके हाथ के तोते उड़ गए और उन्होंने अपनी जान छुड़ाने के लिए मोहम्मद पर यह आरोप लगाया और झूठ गढ़ा कि आपने उनके बुतों का उल्लेख मान - सम्मान के साथ करते हुए यह कहा था कि –
' ये श्रेष्ठतर देवियां हैं और इनकी शफाअत ( सिफ़ारिश ) की उम्मीद की जाती हालांकि यह खुला झूठ था , जो सिर्फ इसलिए गढ़ लिया गया था , ताकि मोहम्मद के साथ सज्दा करने की जो ' ग़लती ' हो गई है , उसके लिए एक ' समुचित ' बहाना ढूंढा जा सके और ज़ाहिर है कि जो लोग मोहम्मद पर हमेशा झूठ गढ़ते और आपके खिलाफ़ हमेशा निराधार बातें करते रहे थे , वे अपना दामन बचाने के लिए इस तरह का झूठ क्यों न गढ़ते । बहरहाल मुश्रिकों के सज्दा करने की खबर हब्शा के मुहाजिरों को भी मालूम हुई , लेकिन अपनी सही स्थिीत से हटकर , यानी उन्हें यह मालूम हुआ कि कुरैश मुसलमान हो गए हैं । इसलिए उन्होंने शव्वाल के महीने में मक्का वापसी का रास्ता लिया , लेकिन जब इतने करीब आ गए कि मक्का एक दिन से भी कम ख़ुफ़िया दावत के तीन साल सूरः मुद्दस्सिर की पिछली आयतों के आने के बाद मोहम्मद अल्लाह की तरफ लोगों को बुलाने के लिए उठ गए । चूंकि आपकी कौम जफाकार थी , बुतपरस्ती और दरगाह परस्ती उसका दीन था , बाप - दादा की रीति उसकी दलील थी , गर्व , दंभ , अहंकार और इंकार उसका चरित्र था और तलवार उसकी समस्याओं का साधन थी । इसके अलावा अरब प्रायद्वीप में धार्मिक गुरु के रूप में उसकी मान्यता थी , उसके असल केन्द्र पर काबिज़ और उसके वजूद के निगरां थे , इसीलिए ऐसी स्थिति में हिक्मत का तक़ाज़ा था कि पहले पहल दावत व तब्लीग़ का काम परदे के पीछे रहकर अंजाम दिया जाए , ताकि मक्का वालों के सामने अचानक एक हलचल पैदा करने वाली स्थिति न आ जाए । शुरू के इस्लामी साथी
No comments:
Post a Comment