Monday, 7 October 2019

मोहम्मद की बेइज्जती

कुरआन ने तौहीद के बारे में उनके हर सन्देह का खंडन किया है , बल्कि आगे बढ़कर कुछ ऐसी बातें भी बयान की हैं जिनसे इस विवाद का हर पहलू स्पष्ट हो गया है और उसका कोई पहलू बाक़ी नहीं छोड़ा है । इस सिलसिले में उनके माबूदों ( उपास्यों ) की आजिज़ी व मजबूरी इस तरह खोलकर बयान की है कि उस पर कुछ आगे कहने की गुंजाइश नहीं और शायद इसी बात पर उनका गुस्सा भड़क उठा और फिर जो कुछ पेश आया वह मालूम है । जहां तक मोहम्मद की पैग़म्बरी के बारे में उनके सन्देहों का ताल्लुक़ है , तो वे तो इसे मानते थे कि आप सच्चे , अमानतदार और नेक और परहेज़गार आदमी हैं , लेकिन वे समझते थे कि नबूवत व रिसालत का पद इससे कहीं ज़्यादा महान है कि किसी इंसान को दिया जाए । यानी उनका मानना था कि जो इंसान है , वह रसूल नहीं हो सकता और जो रसूल हो , वह इंसान नहीं हो सकता । इसलिए जब मोहम्मद  ने अपनी नुबूवत का एलान किया और अपने ऊपर ईमान लाने की दावत दी तो उन्हें आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा , ' यह कैसा रसूल है कि खाना खाता है और बाजारों में चलता - फिरता है । ' उन्होंने यह भी कहा , ' अल्लाह ने किसी इंसान पर कोई चीज़ नहीं उतारी है ।
   अल्लाह ने इनका खंडन करते हुए फरमाया , ' आप कह दें , वह किताब किसने उतारी है जिसे मसा अलैहिस्सलाम लेकर आए थे और जो लोगों के लिए नूर और हिदायत है । वे चूंकि जानते और मानते थे कि मूसा अलैहिस्सलाम इंसान हैं , इसलिए कोई जवाब न दे सके । अल्लाह ने उनके रद्द में यह भी फ़रमाया कि हर क़ौम ने अपने पैग़म्बरों की पैग़म्बरी का इंकार करते हुए यही कहा था कि ' तुम लोग तो हमारे ही जैसे इंसान हो । ' और उसके जवाब में पैग़म्बरों ने उनसे कहा था कि हम लोग यक़ीनन तुम्हारे ही जैसे इंसान हैं , लेकिन अपने बन्दों में से जिस पर वह चाहता है , एहसान करता है । ' मतलब यह है कि नबी और रसूल हमेशा इंसान ही हुआ करते हैं । इंसान होने और रसूल होने में कोई टकराव नहीं है । चूंकि उन्हें इकरार था कि इब्राहीम और इस्माईल और मूसा अलैहिस्सलाम पैग़म्बर थे और इंसान भी थे , इसलिए वे अपने इस सन्देह पर अधिक आग्रह न कर सके , इसलिए उन्होंने पैंतरा बदला और कहने लगे , अच्छा अगर ऐसा है , यानी इंसान पैग़म्बर हो सकता है , तो क्या अल्लाह को अपनी पैग़म्बरी के लिए यही यतीम व मिस्कीन इंसान मिला था ? यह कैसे हो सकता है कि अल्लाह मकका और तायफ़ के बड़े - बड़े लोगों को छोड़कर इस मिस्कीन को पैग़म्बर बना ले । ' यह कुरआन इन दोनों आबादियों में से किसी बड़े आदमी पर क्यों न उतारा गया ? अल्लाह ने इनका रद्द करते हुए फ़रमाया , ' क्या ये लोग तेरे रब की रहमत का विभाजन न करते हैं ? ' मतलब यह है कि आयत व रिसालत तो अल्लाह की रहमत है और ' अल्लाह ज़्यादा जानता है कि उसे अपनी पैग़म्बरी कहां रखनी चाहिए । इन जवाबों के बाद मुश्रिकों ने एक और पहलू बदला , कहने लगे कि दुनिया के बादशाहों के एलची धूम - धाम से पूरी फौज के साथ चलते हैं .
    उनका बडा रौब व दबदबा हुआ करता है और उनके लिए ज़िंदगी के हर तरह के सामान जुटाए रहते हैं , फिर मुहम्मद का क्या मामला है कि वह अल्लाह के रसूल होने का दावा करते हैं और उन्हें पेट भरने के लिए बाज़ारों के चक्कर भी काटना पड़ते हैं । ' उन पर कोई फ़रिश्ता क्यों न उतारा गया जो उनके साथ डराने वाला होता या उनकी का खजाना क्यों न डाल दिया गया या उनका कोई बाग़ ही होता जिससे वह खाते और जालिमों ने कहा कि तुम लोग तो एक जादू किए हुए आदमी की पैरवी कर रहे हो । अल्लाह ने इस सारी कठहुज्जती का एक छोटा - सा जवाब दिया कि मुहम्मद सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं , यानी आपकी मुहिम यह है कि आप हर छोटे - बड़े , कमज़ोर और ताक़तवर , शरीफ़ और पस्त , आज़ाद और गलाम तक अल्लाह का पैग़ाम पहुंचा दें । इसलिए अगर ऐसा होता कि आप भी बादशाहों के एलचियों की धूम - धाम , नौकरों - चाकरों की फौज के साथ चलने वालों के साथ भेजे जाते तो कमज़ोर और छोटे लोग तो आप तक पहुंच ही नहीं सकते थे कि आपसे फायदा उठा सकें , हालांकि यही आम लोग हैं , इसलिए ऐसी शक्ल में पैग़म्बर बनाने का मक्सद ही खत्म हो जाता और इसका कोई उल्लेखनीय लाभ न होता । जहां तक मरने के बाद दोबारा उठाए जाने के मामले का ताल्लुक़ है , तो उसके इंकार के लिए मुश्रिकों के पास , स्तब्धता और बे - अक्ली के अलावा कोई दलील न थी । 
  वे आश्चर्य से कहते थे , ' क्या जब हम मर जाएंगे और मिट्टी और हड्डी हो जाएंगे तो फिर उठा दिए जाएंगे ? क्या हमारे पहले बाप - दादा भी ? ( अस्साफ्फात : 1 ) फिर वे खुद ही कहते थे ' यह दूर की वापसी है । वे ताज्जुब से कहते , क्या हम तुम्हें एक ऐसा आदमी न बताएं जो खबर देता है कि जब तुम लोग बिल्कुल रेज़ा - रेज़ा हो जाओ , तो फिर तुम्हारा एक नया जन्म होगा ? मालूम नहीं उसने अल्लाह पर झूठ गढ़ा है या उसको पागलपन है । ' कहने वाले ने यह भी कहा , ' क्या मौत , उसके बाद जिंदगी , उसके बाद हश ? उम्मे अम्र ! यह तो पागल की बड़ है । ' अल्लाह ने इसके खंडन के लिए दुनिया में पेश आने वाले हालात पर उनकी नज़र डलवाई कि एक ज़ालिम अपने जुल्म की सज़ा पाए बगैर दुनिया से गुज़र जाता है और मज़लूम भी ज़ालिम से अपना हक़ वसूल किए बगैर मौत से दोचार हो जाता है । उपकार करने वाले और भले लोग अपने उपकार और सुधार का बदला पाए बगैर फौत हो जाते हैं और फ़ाजिर और बदकार अपनी बदअमली की सज़ा पाए बगैर मर जाते हैं । अब अगर इंसान को मरने के बाद दोबारा न उठाया जाए और उसके अमल का बदला न दिया जाए तो दोनों फरीक़ बराबर हो जाएंगे , बल्कि जालिम और फ़ाजिर , मज़्लमों और नेकों से ज्यादा खुशकिस्मत होंगे और यह बात बिल्कुल ही नामाकूल है और अल्लाह के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता कि वह अपनी सृष्टि - व्यवस्था की बुनियाद ऐसे बिगाड़ कर रखेगा । अल्लाह फरमाता है , क्या हम आज्ञाकारियों को अपराधियों जैसा ठहराएंगे ?
   तुम्हें क्या हो गया है ? तुम कैसे फैसले कर रहे हो ? ' साथ ही फरमाया , ' क्या हम ईमान लाने वालों और भले काम करने वालों को जमीन के अन्दर फसाद पैदा करने वालों जैसा बनाएंगे या क्या हम परहेज़गारों को फाजिरों जैसा ठहारएंगे ? ' और फरमाया , ' क्या बुराइयां करने वाले यह समझते हैं कि हम उन्हें ईमान लाने वालों और भले काम करने वालों जैसा बनाएंगे कि इन ( दोनों गिरोहों ) की जिंदगी और मौत बराबर हो ? बुरा फ़ैसला है जो ये करते हैं ? जहां तक ' बड की बकवास ' के आरोप का ताल्लक है . तो अल्लाह ने इसको रद्द करते हुए फरमाया , ' क्या तुम पैदाइश में ज़्यादा सख्त हो या आसमान ? ' और फरमाया , ' क्या यह नज़र नहीं आता कि जिस अल्लाह ने आसमान और ज़मीन को पैदा किया और उनको पैदा करने से नहीं थका , वह इस पर भी कुदरत रखता है कि मुर्दो को जिंदा कर दे ? क्यों नहीं ? यकीनी तौर पर वह हर चीज़ पर कुदरत रखता है ? साथ ही फरमाया , ' तुम पहली पैदाइश तो जानते ही हो , फिर हक़ीक़त क्यों नहीं मानते ? ' अल्लाह ने वह बात भी याद दिलाई जो अक्ल के पहलू से भी और चलन के पहलू से भी जानी - पहचानी है कि किसी चीज़ को दोबारा करना पहली बार करने से ज़्यादा आसान होता है । फ़रमाया , ' जैसे हमने पहली बार पैदा करने की शुरुआत की थी , उसी तरह पलटा भी लेंगे । ' और फरमाया , क्या पहली बार पैदा करने से हम थक गए हैं ? यों अल्लाह ने उनके एक - एक सन्देह का बड़े ही सन्तोषजनक ढंग से जवाब दिया , जिससे हर सूझ - बूझ वाला आदमी सन्तुष्ट हो सकता है , लेकिन मक्का के विरोधी हंगामा पसंद करते थे , उनमें अहंकार था , वे जमीन में बड़े बनकर रहना चाहते थे और सृष्टि पर अपनी राय लागू करना चाहते थे , इसलिए अपनी सरकशी में भटकते रहे ।

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