ये सभी ' साबिकूनल अव्वलीन ' की उपाधि से जाने जाते हैं । छान - बीन से मालूम हुआ है कि जो लोग इस्लाम की तरफ़ पहल करने के गुण से जाने जाते हैं , उनकी तायदाद मर्दो और औरतों को मिलाकर एक सौ तीस तक पहुंच जाती है , लेकिन यह बात पूरे विश्वास से नहीं मालूम हो सका कि ये सब खुली दावत व तब्लीग़ से पहले इस्लाम लाए या कुछ लोग बाद के हैं ।
इब्ने इस्हाक़ का बयान है कि इसके बाद मर्द और औरतें इस्लाम में गिरोह - गिरोह करके दाखिल हुए , यहां तक कि मक्का में इस्लाम की चर्चा फैल गई । ये लोग छिप - छिपाकर मुसलमान हुए थे और मोहम्मद भी छिप - छिपाकर ही उनके मार्गदर्शन और धार्मिक शिक्षा के लिए उनके साथ जमा होते थे , क्योंकि तब्लीग़ का काम अभी तक व्यक्तिगत रूप से छिप - छिपाकर ही चल रहा था ।
इधर सूरः मुद्दस्सिर की शुरू की आयतों के बाद आयत का आना बराबर और तेज़ी के साथ जारी था । इस दौर में छोटी - छोटी आयतें उतर रही थीं । इन आयतों का अन्त एक ही प्रकार के बड़े चित्ताकर्षक शब्दों में होता था और उनमें बड़ा शान्तिदायी और मनमोहक संगीत होता था जो उस शांत और हृदय को छू लेने वातावरण के अनुसार ही होता था , फिर इन आयतों में मनोनिग्रह के गुण और दुनिया की गन्दगी में लत - पत होने की बुराइयां बयान की जाती थीं और जन्नत व जहन्नम का चित्र इस तरह खींचा जाता था कि मानो वे आंखों के सामने हैं । ये आयतें ईमान वालों को उस वक़्त के इंसानी समाज से बिल्कुल अलग एक दूसरी ही दुनिया की सैर कराती थीं । नमाज़ शुरू में जो कुछ उतरा , उसी में नमाज़ का हुक्म भी था ।
इब्ने हजर कहते हैं कि मोहम्मद और इसी तरह आपके सहाबा किराम मेराज के वाकिए से पहले कतई तौर पर नमाज़ पढ़ते थे , अलबत्ता इसमें मतभेद है कि पांच वक़्त की नमाज़ से पहले कोई नमाज़ फ़र्ज़ थी या नहीं ? कुछ लोग कहते हैं कि सूरज के उगने और डूबने से पहले एक - एक नमाज़ फ़र्ज़ थी ।
हारिस बिन उसामा ने इले लहीआ की ओर से मिली हज़रत जैद बिन हारिसा रजि० से यह हदीस रिवायत की है कि मोहम्मद पर शुरू - शुरू में जब आयत आई , तो आपके पास हज़रत जिबील तशरीफ़ लाए और आपको वुजू का तरीका सिखाया , जब वुजू से फ़ारिश हुए तो एक चुल्लू पानी लेकर शर्मगाह पर छींटा मारा । इब्ने माजा ने भी इसी अर्थ में हदीस रिवायत की है । बरा बिन आज़िब और इने अब्बास रजि० से भी इसी तरह की हदीस रिवायत की गई है । इने अब्बास रजि० की हदीस में भी इसका ज़िक्र है कि यह ( नमाज़ ) शुरू के फ़ों में से थी । इले हिशाम का बयान है कि मोहम्मद और सहाबा किराम रजि० नमाज के वक़्त घाटियों में चले जाते थे और अपनी क़ौम से छिपकर नमाज़ पढ़ते थे । एक बार अबू तालिब ने मोहम्मद और हज़रत अली रजि० को नमाज़ पढ़ते देख लिया , पूछा और सच्चाई मालूम हुई तो कहा कि इस पर बरक़रार रहें ।
यह इबादत थी , जिसका हुक्म ईमान वालों को दिया गया था । उस वक़्त नमाज के अलावा और किसी बात के हुक्म का पता नहीं चलता , अलबत्ता आयत के ज़रिए तौहीद के अलग - अलग पहलू बयान किए जाते थे , नफ़्स पाक करने का चाव दिलाया जाता था । अच्छे अख्लाक़ पर उभारा जाता था । जन्नत व जहन्नम का नक्शा इस तरह खींचा जाता था मतलब वे आंखों के सामने हैं ।
ऐसे असरदार वाज होते थे जिनसे सीने खुल जाते , रूहें आसूदा हो जाती और ईमान वाले उस वक़्त के इंसानी समाज से अलग एक दूसरी ही फ़िज़ा की सैर करने लगते । यो तीन वर्ष बीत गए और दावत व तब्लीग़ का काम केवल व्यक्तियों तक सीमित रहा । मज्मों और मज्लिसों में उसका एलान नहीं किया गया , लेकिन इस बीच यह करैश के अन्दर खासी मशहूर हो गई । मक्का में इस्लाम का ज़िक्र फैल गया और लोगों में इसका चर्चा हो गया । कुछ ने किसी - किसी वक़्त मना भी किया और कुछ ईमान वालों पर सख्ती भी हुई , लेकिन कुल मिलाकर इस दावत को कोई खास अहमियत नहीं दी गई , क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने भी उनके दीन से कोई छेड़ - छाड़ न की थी , न उनके माबूदों के बारे में जुबान खोली थी ।
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