सफ़ा पहाड़ी पर जब मोहम्मद ने अच्छी तरह इत्मीनान कर लिया कि अल्लाह के दीन के प्रचार के समय अबू तालिब उनका समर्थन करेंगे , तो एक दिन आप सफा पहाड़ी पर तशरीफ़ ले गए और सबसे ऊंचे पत्थर पर चढ़कर यह आवाज़ लगाई , या सबाहा ( हाय सुबह ) ( अरबों का चलन था कि दुश्मन के हमले या किसी संगीन खतरे से सूचित करने के लिए किसी ऊंची जगह पर चढ़कर इन्हीं शब्दों से पुकारते थे । )
इसके बाद आपने कुरैश की एक - एक शाख़ और एक - एक ख़ानदान को आवाज़ लगाई : ऐ बनी फह ! ऐ बनी अदी ! ऐ बनी फ्लां ! और ऐ बनी फ्ला ! ऐ बनी अब्दे मुनाफ़ ! ऐ बनी अब्दुल मुत्तलिब ! जब लोगों ने आवाज़ सनी तो कहा . कौन पकार रहा है ? जवाब मिला . मुहम्मद हैं । इस पर लोग तेज़ी से आए । अगर कोई खुद न आ सका , तो अपना आदमी भेज दिया कि देखे क्या बात है ? यो कुरैश के लोग आ गए , उनमें अबू लव भी था । जब सब जमा हो गए , तो आपने फ़रमाया , यह बताओ , अगर मैं खबर दूं कि उधर इस पहाड़ के दामन में घाटी के अन्दर घोड़सवारों की एक जमाअत है जो तुम पर छापा मारना चाहती है , तो क्या तुम लोग मुझे सच्चा मानोगे ? लोगों ने कहा , हां ! हां ! हमने आप पर कभी झूठ का तजुर्बा नहीं किया है , हमने आप पर सच ही का तजुर्बा किया है ।
आपने फ़रमाया , अच्छा , तो मैं एक सख्त अज़ाब से पहले तुम्हें खबरदार करने के लिए भेजा गया हूं । मेरी और तुम्हारी मिसाल ऐसे ही है जैसे किसी आदमी ने दुश्मन को देखा , फिर उसने किसी ऊंची जगह पर चढ़कर अपने खानदान वालों पर नज़र डाली तो उसे डर हुआ कि दुश्मन उससे पहले पहुंच जाएगा ,
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