मुसलमानों को हब्शा की हिजरत का हुक्म फरमाया इस संगीन स्थिति का तकाज़ा यह था कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ऐसा सावधानी भरा और हौसलामंदी वाला तरीका अपनाएं कि मुसलमानों पर जो आफ़त टूट पड़ी थी , उससे बचाने की कोई शक्ल निकल आए और जहां तक संभव हो उसकी तीव्रता कम की जा सके । इस उद्देश्य के लिए मोहम्मद ने दो हिक्मत भरे कदम उठाए जो दावत का काम आगे बढ़ाने में प्रभावी सिद्ध हुए ।
1 . अरकम बिन अबी अरक़म मख्तमी के मकान को दावत का तर्बियत के केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किया ,
1 . अरकम बिन अबी अरक़म मख्तमी के मकान को दावत का तर्बियत के केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किया ,
2 मुसलमानों को हब्शा की हिजरत का हुक्म फरमाया ।
दारे अरक़म ( अरक़म का घर )
यह मकान सरकशों की निगाहों और उनकी मज्लिसों से दर सफा पहाड़ के दामन में अलग - थलग स्थित था । मोहम्मद ने इसे इस उद्देश्य के लिए चुन लिया कि यहां मुसलमानों के साथ खुफ़िया तौर पर जमा हों । इसलिए आप यहां इत्मीनान से बैठकर मुसलमानों पर अल्लाह की आयतें तिलावत फ़रमाते , उनका मन उज्जवल करते और उन्हें किताब व हिक्मत सिखाते और मुसलमान सुख - शान्ति के साथ अपनी इबादत और दीनी आमाल अंजाम देते और अल्लाह की उतारी हुई आयत सीखते ।
जो आदमी इस्लाम लाना चाहता , वह भी यहां आकर खामोशी से मुसलमान हो जाता और जुल्म और बदला लेने पर उतरे हुए सरकशों को इसकी खबर न होती । यह बात निश्चित है कि अगर मोहम्मद इसके बजाए मुसलमानों के साथ खुल्लम खुल्ला इकट्ठा होते तो मुशरिक अपनी पूरी ताक़त के साथ इस बात की कोशिश करते कि आप मन को पाक करने और किताब व सुन्नत का जो काम करना चाहते हैं , उसे न होने दें ।
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