Sunday, 6 October 2019

हियरा की बादशाही

      हियरा की बादशाही इराक़ और उसके पास - पड़ोस के क्षेत्रों पर कोरोश कबीर ( खोरस या साइरस जुलकरनैन 557 ईसा पूर्व - 529 ईसा पूर्व ) के ज़माने ही से फारस वालों का शासन चला आ रहा था । कोई न था जो उनके मुकाबले में आने की जुर्रात करता , यहां तक कि सन् 326 ई०पू० में सिकन्दर मकदूनी के दारा प्रथम को हराकर फारसियों की ताक़त तोड़ दी , जिसके नतीजे में उनका देश टुकड़े - टुकड़े हो गया और अफरा - तफरी शुरू हो गई । यह अशान्ति सन् २३० ई० तक जारी रही और इसी दौरान कस्तानी कवीलों ने देश छोड़कर इराक के एक बहुत बड़े हरे - भरे सीमावर्ती क्षेत्र में रहना - सहना शुरू कर दिया , फिर अदनानी देश छोड़ने वालों का एक रेला आया और उन्होंने लड - भिडकर फरातिया द्वीप के एक भाग को अपने रहने की जगह बना ली ।

      इधर 226 ई० में अर्दशीर ने जब सासानी साम्राज्य की नींव डाली , तो धीरे - धीरे फारसियों की ताक़त एक बार फिर पलट आई । अर्दशीर ने फारसियों को जोड़ा और अपने देश की सीमा पर आबाद अरबों को आधीन बना लिया । इसी के नतीजे में कुजाआ ने शाम देश का रास्ता लिया , जबकि हियरा और अम्बार के अरब निवासियों ने टैक्स देना गवारा कर लिया ।

     अर्दशीर के युग में हियरा , बादियतुल इराक़ और द्वीप के रबीई और मुज़री क़बीलों पर जज़ीमतुल वजाह का शासन था । ऐसा मालूम होता है कि अर्दशीर ने महसस कर लिया था कि अरब निवासियों पर सीधे - सीधे शासन करना और उन्हें सीमा पर लूट - मार से रोके रखना संभव नहीं , बल्कि उनको रोके रखने की केवल एक ही शक्ल है कि खुद किसी ऐसे अरब को उनका शासक बना दिया जाए जिसे अपने कंबे - कबीले का समर्थन प्राप्त हो । इसका एक लाभ यह भी होगा कि जरूरत पड़ने पर रूमियों के खिलाफ उनसे मदद ली जा सकेगी और शाम के रूम समर्थक अरब शासकों के मुकाबले में इराक के इन अरब शासकों को खड़ा किया जा सकेगा । -             हियरा के बादशाहों के पास फ़ारसी फौज की एक यूनिट हमेशा रहा करती थी , जिससे ग्रामीण अरब विद्रोहियों को कुचलने का काम लिया जाता था । सन् 268 ई० की सीमाओं में जज़ीमा का देहावसान हो गया और अम्र बिन अदी बिन नस्र लखमी ( सन् 269 - 288 ) उसका उत्तराधिकारी हुआ ।

     यह लख्म कबीले का पहला शासक था और शापुर अर्दशीर का समकालीन था । उसके बाद क़बाज़ बिन फीरोज़ ( 448 ई० - 531 ई० ) के युग तक हियरा पर लख्मियों का लगातार शासन रहा । कबाज़ के युग में मुज़दक प्रकट हुआ जो नग्नता का झंडाबरदार था । कबाज़ और उसकी बहुत - सी प्रजा ने मुज़दक का समर्थन किया , फिर कबाज़ ने हियरा के बादशाह मुन्ज़िर विन माइस्समाइ ( 521 - 554 ई० ) को सन्देश भेजा कि तुम भी यही तरीका अपना लो । मुन्ज़िर बड़ा स्वाभिमानी था , इन्कार कर बैठा । नतीजा यह हुआ कि कबाज़ ने उसे पदच्युत करके उसकी जगह मुज़दकी दावत के एक पैरोकार हारिस बिन अम्र बिन हिज्र किन्दी को हियरा का शासन सौप दिया ।

      कबाज़ के बाद फारस की बागडोर किसरा नौशेरवां के हाथ आई । उसे इस धर्म से सख्त नफरत थी । उसने मुज़दक और उसके समर्थकों की एक बड़ी तायदाद की हत्या करा दी । मन्ज़िर को दोबारा हियरा का शासक बना दिया और हारिस बिन अम्र को अपने यहां बुला भेजा , लेकिन वह बनू कल्ब के इलाके में भाग गया और वहीं अपनी जिंदगी गुज़ार दी ।

      मुन्जिर बिन माइस्समा के बाद नोमान बिन मुन्ज़िर ( सन् 583 ई० - 605 ई० ) के युग तक हियरा का शासन उसी की नस्ल में चलता रहा , फिर जैद बिन अदी इबादी ने किसरा से नोमान बिन मुंज़िर की झूठी शिकायत की । किसरा भड़क उठा और नोमान को अपने पास तलब किया । नोमान चुपके से बनू शैबान के सरदार हानी बिन मस्ऊद के पास पहुंचा और अपने घरवालों और माल व दौलत को उसकी अमानत में देकर किसरा के पास गया । किसरा ने उसे कैद कर लिया और कैद ही में उसका देहान्त हो गया ।

      इधर किसरा ने नोमान को कैद करने के बाद उसकी जगह इयास बिन कबीसा ताई को हियरा का शासक बनाया और उसे हुक्म दिया कि हानी बिन मसऊद से नोमान की अमानत तलब करे , हानी स्वाभिमानी था , उसने सिर्फ इंकार ही नहीं किया , बल्कि लड़ाई का एलान भी कर दिया । फिर क्या था . इयास से अपने साथ किसरा की भारी सेना और मरज़बानों की जमाअत लेकर रवाना हुआ और जीकार के मैदान में दोनों फरीकों में घमासान की लड़ाई हुई , जिसमें बनू शैवान को विजय मिली और फारसियों को बुरी तरह पसपा होना पड़ा । यह पहला मौका था जब अरब ने अजम पर विजय प्राप्त की थी । यह घटना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म के थोड़े ही दिनों पहले या बाद की है । आपका जन्म हियरा पर इयास के शासन के आठवें महीने में हुआ था ।

      इयास के बाद किसरा ने हियरा पर एक फ़ारसी शासक नियुक्त किया , लेकिन 632 ई० में लमियों की सत्ता फिर बहाल हुई और मुन्जिर बिन मारूर नामी इस कबीले के एक व्यक्ति ने बागडोर संभाली , मगर अभी उसको सत्ता में आए आठ महीने ही हुए थे कि इज़रत खालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु इस्लाम की भारी सेना लेकर हियरा  में दाखिल हो गए  ।







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